गुरु गोविन्द सिंह के योगदान पर निबन्ध व जीवन-परिचय

गुरु गोविन्द सिंह के योगदान पर निबन्ध व जीवन-परिचय

गुरु गोविन्द सिंह (1995) 

खालसा पंथ अथवा सिक्ख धर्म की स्थापना तथा हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु, गुरु गोविन्द सिंह द्वारा किए गए कार्यों का विशेष महत्व है । वस्तुतः सिक्ख समाज का वर्तमान सामाजिक एवं धार्मिक स्वरूप उनके प्रयासों का ही परिणाम है। उनके जीवन एवं कार्यों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है-

जीवन-परिचय — गुरु गोविन्द सिंह का जन्म 1666 ई० में पाटन में हुआ था। ये सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर के ज्येष्ठ पुत्र थे। गुरु गोविन्द सिंह ने राजपूत योद्धा बज्जर सिंह से सैनिक शिक्षा प्राप्त की और मुंशी पीर मौहम्मद से फारसी का ज्ञान प्राप्त किया। जब वे 9 वर्ष के थे कि औरंगजेब ने इनके पिता गुरु तेगबहादुर को मृत्यु दण्ड दे दिया था। 1675 ई० में ये गुरु की गद्दी पर आसीन हुए। गुरु गोविन्द सिंह निर्भीक, धैर्यवान और कुशल संगठनकर्ता थे। 1708 ई० में गोदावरी नदी के तट पर एक पठान ने खुरे से प्रहार कर इनकी हत्या कर दी। इस प्रकार, 1708 ई० में गुरु गोविन्द सिंह का स्वर्गवास हो गया। गुरु गोविन्द सिंह के कार्य अथवा योगदान — गुरु गोविन्द सिंह की औरंगजेब से निरन्तर शत्रुता बनी रही।

इन्होंने अपने आनन्दपुर के निवास काल से ही निकटस्थ राजाओं पर आक्रमण किए एवं उल्लेखनीय विजय प्राप्त की।1699 ई० में वैसाखी पर्व पर गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने अनुयायियों

के लिए पाँच ककार अर्थात् कंघा, केश, कच्छा, कृपाण एवं कड़ा अनिवार्य बताए तथा अपने शिष्यों को पंथ के लिए

सर्वस्व न्योछावर करने की शपथ दिलाई।

उनके द्वारा प्रचलित खालसा पंथ की स्थापना से निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम सामने आए

(1) खालसा पंथ की स्थापना ने सिक्ख सम्प्रदाय को पूर्णतः एक सैनिक जाति के रूप में परिवर्तित कर दिया


आज भी अपनी वीरता के लिए प्रख्यात है।

(2) सिक्ख धर्म में गुरु नानक के समय से प्रचलित अहिंसा का स्थान शस्त्रों ने ले लिया। (3) सिक्ख सम्प्रदाय के माध्यम से समाज में जात-पाँत, छुआ-छूत और भेदभाव समाप्त हो गए।

(4) सिक्खों में भ्रातृत्व की भावना में वृद्धि हुई और सिक्ख सम्प्रदाय एक सशक्त एवं संगठित सम्प्रदाय बन गया।

(5) इस पंथ की स्थापना के परिणामस्वरूप जनतान्त्रिक व्यवस्था का विकास हुआ।

(6) गुरु की गद्दी को समाप्त कर उसे केवल एक राजनीतिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया। गुरु गोविन्द सिंह ने गुरु परम्परा को समाप्त कर प्रत्येक सिक्ख को नाम के आगे 'सिंह' शब्द प्रयुक्त करने का

आदेश दिया। उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति को गुरु एवं ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। गुरु गोविन्द सिंह स्वतन्त्रता, देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता को ही अपना धर्म मानते थे। हिन्दू धर्म के प्रति उनका अत्यधिक लगाव था। खालसा पंथ का संगठन भी धर्म की रक्षा के लिए ही किया गया था। ये जात-पाँत एवं भेदभाव के प्रबल विरोधी थे। इसके अतिरिक्त, इन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी ब्रज भाषा में लिखी कविताएँ हिन्दी साहित्य में अपना पृथक् स्थान रखती हैं। इन्होंने सिक्ख धर्म को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए कविता को माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया।

इस प्रकार, सिक्ख धर्म के विकास, उत्थान एवं संगठन में गुरु गोविन्द सिंह का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन्होंने गुरु पद को समाप्त कर 'ग्रंथ साहिब' को ही गुरु मानने का निर्देश दिया। सिक्ख मत के अन्तर्गत आज भी यही परम्परा विद्यमान है। उनकी मृत्यु के उपरान्त भी उनकी शिक्षाओं का प्रभाव बना रहा और सिक्ख अपना नैतिक बल उन्नत कर शक्तिशाली बनते चले गए। सिक्ख समाज को हिन्दुओं ने अपनी धर्म-रक्षक भुजा के रूप में स्वीकार किया और सिक्खों की संख्या में वृद्धि करने हेतु यह परम्परा चल पड़ी कि प्रत्येक हिन्दू परिवार अपने ज्येष्ठ पुत्र को खालसा पंथ की सेवा में अर्पित कर दे। आज भी पंजाब में ऐसे हिन्दू परिवार हैं, जिनका एक सदस्य सिक्ख होता है।

गुरु गोविन्द सिंह के सम्बन्ध में कनिंघम ने लिखा है, "सिक्खों का अन्तिम धर्मगुरु अपनी आशाओं को पूर्ण होते देखने के लिए जीवित नहीं रहा, तथापि उसने जाति की सुप्त शक्तियों को झोड़कर जगा दिया और उसे सामाजिक स्वतन्त्रता एवं जातीय स्वाभिमान प्राप्त करने की अभिलाषाओं से अनुप्राणित किया।"

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