मौखरि तथा उत्तरगुप्तों का सम्बन्ध - Relationship between Maukhari and Uttaraguptas

 मौखरि तथा उत्तरगुप्तों का सम्बन्ध 

गुप्त साम्राज्य के विघटन के पश्चात् उत्तर भारत में जो शक्तियाँ स्वतन्त्र हुई, उनमें कन्नौज के मौखरि तथा मगध और मालवा के उत्तर गुप्त विशेष रुप से उल्लेखनीय है। इन दोनो ही राजवंशों का इतिहास बहुत कुछ अंशों में एक-दूसरे से समता रखता है। प्रारम्भ में दोनो ही सम्राट गुप्तवंश के सामन्त थे तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहे, किन्तु जब दोनों ही स्वतन्त्र हुए तो उनका मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध युद्ध में परिणत हो गया।


मैत्री सम्बन्ध :- प्रारम्भ में मौखरि तथा उत्तरगुप्त दोनो ही गुप्तवंश के अधीन थे। तीन पीढ़ियों तक दोनों के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण बने रहे। मौखरिवंश का प्रथम शासक हरिवर्मा था उसका समकालीन उत्तरगुप्तवंशी नरेश कृष्णगुप्त था जो उत्तर गुप्त वंश का संस्थापक था। इस समय उत्तर गुप्त साम्राज्य पतनोन्मुख था अतः ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही शासको ने एक दूसरे के प्रभाव को बढ़ाने में सहयोग दिया होगा। उत्तरगुप्त नरेश कृष्णगुप्त की कन्या हर्षगुप्ता का विवाह मौखरि नरेश हरिवर्मा के पुत्र आदित्यवर्मा के साथ सम्पन्न हुआ था। इस वैवाहिक सम्बन्ध से दोनों ही राजवंती के सम्बन्ध और अधिक मृदुतापूर्ण हो गये होगे। मौखरिवंश का दूसरा राजा आदित्यवमां हुआ जो हरिवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसका समकालीन उत्तरगुप्त फासक हर्षगुप्त था जो कृष्णगुप्त का पुत्र था। हर्षगुप्त की बहन का विवाह आदित्य वर्मा के साथ किया गया था। अतः दोनों ही शासको के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहे। मौखरिवंश का तीसरा शासक ईश्वरवर्मा, अपने पिता आदित्यवर्मा के बाद गददी पर बैठा उसका समकालीन उत्तरगुप्त नरेश जीवित गुप्त प्रथम हुआ जो हर्षगुप्त का पुत्र और उत्तराधिकारी था। असीरगढ़ मुद्रालेख से पता चलता है कि ईश्वरवर्मा का विवाह उपगुप्ता नामक कन्या से हुआ था जो उत्तरगुप्त नरेश हर्षगुप्त की पुत्री तथा जीवितगुप्त प्रथम की बहन थी। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम तीन राजवंशो के सम्बन्ध मित्रतापूर्ण बने रहे। यद्यपि दोनों राजवंश अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार करने मे लगे हुए थे तथापि दोनो ने एक दूसरे के महत्व को समझा था। तीन पीढ़ियों तक दोनो राजवंश सामन्त-स्थिति में थे जैसा कि उनकी उपाधि से सूचित होता है।


संघर्क:- छठी शताब्दी के मध्य, मगध का शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इसके साथ ही उत्तर भारत में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी। विभिन्न भागो में नई-नई शक्तियो ने अपनी स्वाधीनता घोषित कर दिया। इनमें मौखरि तथा उत्तर गुप्त भी थे। मौखरि राजवंश को सामन्त स्थिति से स्वतन्त्र स्थिति में पहुँचाने वाला प्रथम शासक ईशानवर्मा था, जबकि उत्तरगुप्त ने कुमारगुप्त के नेतृत्व में अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया दोनो ही शासको ने महाराजा विराज' की उपाधि ग्रहण की तथा साम्राज्य विस्तार में एक-दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो गये। अतः इस समय उनका तीन पीढ़ियों से चला आ रहा मैत्री सम्बन्ध संघर्ष मे बदल गया।

 दोनो का उद्देश्य अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर उत्तर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बन जाना था। मौखरि तथा उत्तरगुप्तो का प्रथम प्रत्यक्ष संघर्ष ईशानवर्मा तथा कुमारगुप्त के बीच हुआ। अफसढ़ के लेख में इस संघर्ष का काव्यात्मक विवरण प्राप्त होता है। जिसके अनुसार, 'ईशानवर्मा की क्षीर सागर के समान विकराल सेना को कुमारगुप्त ने युद्ध क्षेत्र में उसी प्रकार मथ डाला जिस प्रकार से (देवासुर संगाम । लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये मन्दराचल पर्वत के द्वारा क्षीरसागरे भन्या या था।' इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध में इशानवर्मा की पराजय हुई तथा उसका परिणाम कुमारगुप्त के पक्ष मे गया।

कुमारगुप्त की इस विजय ने मौखिरियों की साम्राज्यवादी आशाओं पर पानी फेर दिया। कुमारगुप्त का मगध के ऊपर अधिकार हो गया तथा उत्तर भारत में उसकी प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाला कोई नही रहा। अफसढ़ के लेख से पता चलता है कि प्रयाग में उसने अपना प्राणान्त किया था। यह इस बात का सूचक है कि वह भी उसके अधिकार में था ईशानवर्मा के पश्चात् उसका पुत्र सर्ववर्मा कन्नौज के भौखरिवंश की गद्दी पर बैरत में ने अपने पिता कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात् सिंहासन प्राप्त किया। ऐसा लगता है कि सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिये अपने उत्तरगुप्त प्रतिद्वन्दी दामोदरगुप्त पर आक्रमण किया। अफस के लेख में दोनों के बीच युद्ध का वर्णन मिलता है जिसके अनुसार "दामोदरगुप्त युद्ध भूमि में मूति हो गया तथा फिर सुखधुओं ने उसे


अपने पति के रूप में चुना और उनके पाणिपंकज के स्पर्श से वह जाग गया। इस युद्ध के परिणाम के विषय में मतभेद है। कं० सी० चट्टोपाध्याय ये भवभूति के उत्तर रामचरित से उदाहरण देते हुए यह स्पष्ट किया है कि यह दामोदरगुप्त का होना सुचित होता है। मारा जाना नही।" उनके अनुसार युद्ध में दामोदरगुप्त ही विजय रहा। यद्यपि वह घायल होकर मूर्च्छित हो गया लेकिन शीघ्र ही जाग उठा अभिलेख में ही कहा गया है कि उसने अनेक ब्राह्मणों कन्याओं का विवाह करवाया तथा ब्राह्मणों को अग्रहार दिये। डी० सी० सरकार ने इस मत का खण्डन करते हुए बताया है कि यहाँ दामोदरगुप्त के मारे जाने से ही तात्पर्य है कि यही निष्कर्ष निकाल सकते है कि इस युद्ध में विजयश्री मौखरिनरेश को ही मिली जिसके फलस्वरूप मगध के ऊपर उसका अधिकार स्थापित हो गया। मगध के ऊपर सर्ववर्मा के अधिकार की पुष्टि देवनांक के लेख से भी होती है जिसके अनुसार उसने वारुणीक ग्राम को दान में दिया था। यह स्थान पहले मगध क्षेत्र में ही पड़ता था। मगध के मौखरि अधिपत्य में चले जाने से उत्तरगुप्तों का राज्य केवल मालवा क्षेत्र में ही सीमित हो गया। सम्भवतः इसी कारण दामोदर गुप्त के पुत्र तथा उत्तराधिकारी महासेनगुप्त को हर्षचरित में 'मालवाराज' कहा गया है। सर्ववर्मा के बाद उसका पुत्र अवन्तिवर्मा मौखरियों का राजा बना। उसका उत्तरगुप्त प्रतिद्वन्दी महासेनगुप्त था "जो दामोदरगुप्त का पुत्र था। यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि इन दोनो के सम्बन्ध किस प्रकार के थे। सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि महासेनगुप्त मौखरिनरेश अवन्तिवर्मा की अधीनता स्वीकार करता था। हर्षचरित से पता चलता है कि अवन्तिवर्मा एक शक्तिशाली राजा था। दूसरी ओर महासेनगुप्त को 'महाराजाधिराज नही कहा गया है जो उसकी अधीन स्थिति का सूचक है। ऐसा लगता है कि मौखरियों के विरुध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये ही महासेनगुप्त ने अपनी बहन महासेनगुप्ता का विवाह थाने वर के वर्धननरेश राज्यवर्धन प्रथम के साथ कर दिया। प्रभाकर वर्धन उसी का पुत्र था।

अवन्तिवर्मा के बाद उसका पुत्र गृहवर्मा कन्नौज मौखरिवंश का राजा बना। इस समय तक मालवा में महासेन गुप्त की मृत्यु हो चुकी थी तथा वहाँ देवगुप्त नामक व्यक्ति ने अधिकार स्थापित कर लिया था। गृहवर्मा का विवाह वर्धन नरेश प्रभाकर की कन्या राज्यश्री के साथ हुआ जिससे दोनो राजवंशो में मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया। देवगुप्त ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये बंगाल के गौड़नरेश शशांक के साथ सन्धि कर लिया। हर्षचरित्र से पता चलता है कि प्रभाकर वर्धन के मरते ही देवगुप्त ने कन्नौज के ऊपर आक्रमण कर गृहवर्मा को मार डाला। गृह वर्मा कन्नौज के मौखरिवंश का अन्तिम राजा था। उसकी मृत्यु के साथ ही उसके राजवंश की स्वाधीनता का अन्त हो गया।

इस प्रकार छठी शताब्दी ईस्वी के द्वितीयार्थ में भौखरियों तथा उत्तरगुप्तों के बीच जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ था उसकी समाप्ति हुई।

निष्कर्ष

Important hub में आप का स्वागत है दोस्तों इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको मौखरि तथा उत्तरगुप्तों के इतिहास से संबंधित जानकारी दे रहे हैं निश्चित रूप से यह पोस्ट आपको अच्छा लगा होगा और हमारा यह पोस्ट आपको अच्छा लगे तो अधिक से अधिक शेयर। 

FAQ

Q. मौखरी वंश का अंतिम शासक कौन था?

A. सही उत्तर बृहद्रथ है। वह मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक था जिसने 187 से 180 ईसा पूर्व तक शासन किया था। 

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