गोंड (Gond)
गोड मध्य प्रदेश की सबसे महत्त्वपूर्ण जनजाति है जो प्राचीनकाल में उस क्षेत्र में रहती थी जिसे गोंडवानालैण्ड कहते हैं। यह एक स्वतन्त्र जनजाति थी जिसका अपना राज्य और जिसके 52 गढ़ थे। मध्य भारत में 14 से 18वीं शताब्दी तक इसका राज्य रहा, जबकि मुगलों और मराठा शासकों ने इन पर आक्रमण कर इनके क्षेत्र पर अधिकार कर सपा और इन्हें घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में शरण लेने को बाध्य किया। कुल गोंडों का लगभग 50 प्रतिशत मध्य प्रदेश में है
निवास स्थान (Habitat)-गोड जनजाति के वर्तमान निवास स्थान मध्य प्रदेश के पठारी भाग (जिसमें छिन्दवाड़ा, बैल, सिवनी और मांडला के जिले सम्मिलित है, छत्तीसगढ़ मैदान के दक्षिणी दुर्गम क्षेत्र (जिसमें बस्तर जिला सम्मिलित है), छत्तीसगढ़ और गोदावरी एवं वेनगंगा नदियों के पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त बालाघाट, बिलासपुर, दुर्ग, रामगढ़ एवं रायसेन जिलों में है। इनका सर्वाधिक जमान मध्य प्रदेश में मध्यवर्ती पहाड़ी एवं बराच्छादित पठारों तथा सतपुड़ा पर्वत के पूर्वी और दक्षिणी अगम्य क्षेत्रों में पाया जाता है। इनका निवास क्षेत्र 17:46 से 23°22' उत्तरी अक्षांश और 80°15' तथा 82°15' पूर्वी देशान्तरों के बीच है।
वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ (Conditions related to Environment )-गोंडों का निवास क्षेत्र पूर्णतः पहाड़ी और वनाच्छादित है। इस प्रदेश की मिट्टी कहीं लाल, लाल भूरी, पथरीली बलुई होती है जिसमें अधिकतर मोटे अनाज पैदा किये जाते हैं किन्तु निम्न मैदानी भागों में कांप मिट्टी मिलती है जो भूरे-काले रंग की होती है। इसमें धान और गेहूँ पैदा किया जाता है।
इस प्रदेश की सामान्य ऊँचाई 700 से 800 मीटर है किन्तु अबूझमार पर्वत 1,000 मीटर से भी अधिक ऊंचे हैं। नदियों द्वारा निर्मित मैदान भी 250 से 300 मीटर ऊंचे हैं।
इस प्रदेश की जलवायु ठण्डी और आई है। गर्मियां हल्की और सर्दियों कुछ अधिक ठण्डी होती है। वार्षिक तापमान 15°C से 30°C के बीच में रहता है तथा वर्षा का औसत 125 सेमी. से 150 सेमी. तक रहता है। अतः अधिकांश क्षेत्र में घने, हरे-भरे वन और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ मिलती हैं। वनों के मुख्य वृक्ष साल, सागौन पलासह शीशम, हर्ड बाहुआ, कुसुम और बॉस हैं। वनों में पाये जाने वाले मुख्य पशु जंगली भैंसे, चौते, तेंदुए, जंगली कुत्ते, नीलगाय, सांभर, रोछ, भेड़िया, हिरन तथा अनेक प्रकार की चिड़ियाँ, बन्दर, तोते, कबूतर व मोर मुख्य हैं।
ऊँची-नीची भूमि, वनस्पति एवं पशुओं का गोंडों के जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। एकान्त में रहने से ये पिछड़े हुए किन्तु ईमानदार और सरल चित्त, उदार, साहसी एवं चतुर और स्पष्टवादी होते हैं। ये आलसी नहीं होते किन्तु परिस्थितियों ने इन्हें निष्क्रिय अवश्य बना दिया है। वनों से जंगली कन्दमूल फल, गृह-निर्माण और टोकरियाँ बनाने के लिए अनेक प्रकार की बैतें एवं शराब बनाने के लिए महुआ, ताड़, खजूर आदि का रस प्राप्त किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में लोहा मिलने से ये उसे पिघलाकर सामान्य औजार भी बना लेते हैं।
'गोड' शब्द का प्रयाग अनेक जनजातियों के लिए किया गया है जो मध्य प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी जिलों के पहाड़ी तथा पठारी भागों में रहती हैं (जैसे-गोंड, नाईक्यॉड, राजगोंड, अरखगड, दरोई, पथारोगोंड आदि)। 'गोड' शब्द का अर्थ 'गोंडी' भाषा में 'गाय मारने वाला' तथा 'गाय का मांस खाने वाला होता है, अतः ये स्वयं को गोड कहकर पुकारने में अपमानित समझते हैं। ये अपने को क्वाई (Koi) और क्वाइडर (Koitur) कहते हैं।
रिजाले इस जनजाति को हासिम्मानते हैं, जबकि डर वेकाचार्य और स्ने पूर्व द्राविड़ कहते हैं। मजूमदार इन्हें मिश्रित रक्त का मानते हैं जिनका मूल रूप राजपूतों के मिश्रण से पर्याप्त रूप से परिवर्तित हो गया है। डॉ. गुहा की मान्यता है कि इनका सम्बन्ध प्रोटो-आस्ट्रेलायड प्रजातियों से रहा है जो सांस्कृतिक दृष्टि से कोलारी समूह (Kolorian group) का ही एक भाग है क्योंकि इनकी भाषा 'द्रविड़ परिवार (तमिल और कन्नड़) का ही आदि रूप है। ऐसी मान्यता है कि ये लोग पहले दक्षिणी भारत में रहते थे किन्तु कालान्तर में कुछ कठिनाइयों के कारण ये दो पृथक् समूहों में बँटकर उत्तर की ओर प्रस्थान कर गये। ये गोदावरी नदी के सहारे पहले चन्द्रपुर जिले में पहुँचे और वहाँ से इन्द्रावती नदी के संगम तक। यहीं से इस समूह के दो भाग हो गये-एक, बस्तर जिले में इन्द्रावती के सहारे और दूसरा, सतपुड़ा पर्वत की ओर वैनगंगा के सहारे ।
शारीरिक गठन (Body Structure) - गोंड लोग काले तथा गहरे रंग के होते हैं। उनका शरीर सुडौल होता है किन्तु अंग बड़े होते हैं। बाल मोरे, गहरे और घुंघराले, सिर गोल, चेहरा अण्डाकार, आँखें काली, नाक चपटी होठ मोटे, मुंड चौड़ा, नथुने फैले हुए, दाढ़ी एवं मूंछ पर बाल कम कद 165 सेमी. होता है। गोंडों की खियाँ पुरुषों की तुलना में कद में छोटी, शरीर सुगठित एवं सुन्दर, रंग पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम काला, होठ मोटे, आँखें काली और बाल लम्बे होते हैं।
बस्तियाँ और घर (Settlements and Houses) - गोंडों के घर और बस्तियों के बसाव में सामान्यतः दो बातों का ध्यान रखा जाता है-भौगोलिक अनुकूल स्थिति एवं जल प्राप्ति की सुविधा। ये पठारों, मैदानों, ऊंचे-नीचे पहाड़ी ढालों तथा निम्न मैदानी भागों में बनाये जाते हैं जहाँ प्राकृतिक रूप से सुरक्षा मिल सके। इनके खेतों के निकट ही जल के स्रोत उपलब्ध हो। गाँव की स्थिति में वनों की निकटता का महत्व अधिक होता है। क्योंकि इसी से इन्हें लकड़ियां कन्दमूल फल एवं शिकार को प्राप्त करने की सुविधा होती है।
गाँव की स्थिति तय करने के पूर्व पूजा की जाती है और पशुओं की बलि चढ़ायी जाती है। स्थान पंचायत तथा गाँव के पुजारी द्वारा चुना जाता है। एक गाँव में 50 तक झोंपड़ियाँ होती हैं, इसे टोला कहा जाता है। इन टोलों के बीच में कुछ खाली जगह होती है। टोलों को जोड़ने के लिए पूरब पश्चिम सड़क बनायी जाती है। इसी के सहारे एक तरफ टोला एक पंक्ति के आकार में बसाया जाता है। गाँव के मध्यवर्ती भागों में देवताओं का स्थान रखा जाता है। इसमें एक ऊँचा चबूतरा बनाकर मेहमानों को ठहराया जाता है। गाँव के पूर्वी छोर पर कुछ झण्डे गाड़े जाते हैं जो मृतकों की आत्मा के स्मारक स्वरूप होते हैं। इससे भी आगे श्मशान होता है और ईटों का बना माता का मन्दिर । मन्दिर प्रायः महुआ या सेजा के वृक्ष की छाया में बनाया जाता है। उपयुक्त स्थान पर 'युवकगृह' भी होते हैं। बड़े गाँव में राज्य कर्मचारियों के ठहरने के लिए 'कोस गोतूल' या 'पैक गौतूल' नामक बड़ा घर बनाया जाता है। गाँव में आम, जामुन, पीपल आदि वृक्षों की अधिकता होती है।