कन्नौज का यशोवर्मा - Yashovarma of Kannauj

 कन्नौज का यशोवर्मा

वर्धनवंश के प्रतापी शासक हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत की स्थिति अराजक हो चुकी थी, किन्तु लगभग पौन शताब्दी के पश्चात कन्नौज में एक पराक्रमी शासक का उदय हुआ जिसे इतिहास में यशोवर्मन के अभिधान से विश्रुत है। 



इसने कन्नौज को समस्त भारतीय राजनीति की धुरो बना दिया। यशोवर्मन के इतिहास के विषय में गोडवही (वाक्पतिकृत), नालन्दा अभिलेख, कल्हण की राजतरंगिणी घोषरावान् अभिलेख, चीनी साक्ष्य, प्रबन्ध कोश, वप्यभट्टमरिचरित, प्रभावक चरित एवं मुद्राओं आदि से सूचनाएं मिलती है। यशोवर्धन का वंश नामांत में आर वर्मन पद के आधार पर कनिंघम महोदय ने यशोवर्मन को मौखरि वंश का माना है, लेकिन यह मत समीचीन नहीं लगता क्योंकि पल्लव वंश के शासकों के नाम भी वर्मन पद से समाप्त होते हैं। जैसे महेन्द्रवर्धन, नरसिंहवर्मन, परमेश्वरवर्मन इत्यादि । प्रभावकचरित में इसे मौर्य वंशी बताया गया है। जैन ग्रंथ वप्पभट्टसुचरित के अनुसार वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से सम्बन्धित था-

वर्ममौर्यमहावंशे संभूतस्य महद्युते।

श्री चन्द्रगुप्त भूपाल वंशमुक्तमणि श्रिय... कान्यकुब्ज यशोवर्मः । लेकिन इन दोनों ही ग्रंथों की सूचनाएं निराधार हैं। अन्य किसी ग्रन्थ में इस प्रकार की जानकारी नहीं मिलती। गोडवहाँ यशोवर्मन को चन्द्रवंशीय क्षत्रिय बताता है। दिग्विजय गौंडवों से विदित होता है कि यशोवर्मन ने अपनी दिविजय

दक्षिण-पूर्व से प्रारम्भ की थी। प्रथमतः उसने विन्ध्य पर्वत पर जाकर विन्ध्यवासिनी देवी की उपासना की तथा फिर मगध पर आक्रमण किया। इस युद्ध में मगध नरेश मारा गया। मगध के पश्चात यशोवर्मन- ने बंग क्षेत्र पर अधिकार किया। इसके बाद मलय पर्वत को पार कर पारसीकों पर विजय प्राप्त की, पश्चिमी तटवर्ती प्रदेशों से कर प्राप्त किया और नर्मदा के तट पर पहुंच गया। यहां से वह मरू देश (मारवाड़) से होता हुआ क्रमशः श्रीकण्ठ (थानेश्वर), कुरूक्षेत्र और अयोध्या आया। उसने मंदराचल तथा हिमालय प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की और इस प्रकार अपनी विजय यात्रा पूरी कर वह अंत में कन्नौज आ गया।

डॉ. आर. एस. त्रिपाठी ने इस विजय अभियान पर संदेह व्यक्त किया है क्योंकि यहां किसी पराजित राजा का नाम नहीं मिलता। लेकिन, वी. ए. स्मिथ ने इस विवरण को सही माना है। इस विवरण में उल्लिखित यशोवर्मन् की कतिपय विजयें अन्य साक्ष्यों से भी साम्यता रखती है। उसक मगध तथा गौड़ विजय की पुष्टि उसके नालन्दा अभिलेख, चंदेल शासक धंग के खजुराहो अभिलेख तथा हुई-चाओ के चीनी विवरण से होती है। वी.पी. सिन्हा बुद्ध प्रकाश आदि इतिहासकारों के मतानुसार यह पराजित मगध नरेश उत्तरगुप्त शासक जीवित गुप्त द्वितीय रहा होगा। अपनी मगध विजय के उपलक्ष्य में यशोवर्मन ने मगध में यशवर्धनपुर नामक नगर की स्थापना की थी। नियम महोदय ने इस नगर की पहचान आधुनिक विहार नामक कर तथा कोला ने आधुनिक पोवा नामक ग्राम से की है।

दक्षिण मेंशन का शासक से हुआ था उसका नामों में नहीं है। लेकिन लेख से विदित होता है कि चालुक्य नरेश विनयादित्य के पुत्र विजयादित्य ने किसी सकलोपनाथ से युद्ध कर उसे बंदी बना लिया था। कतिपय इतिहासकार ने इस सकलौत्तरापथनाथ का तादात्म्य यशीयमन से किया है।

गोडवों में वर्णित पारसीकों को विद्वानों ने सित्य के अरव आक्रामकों से जोड़ा है। इनके अतिरिक्त पश्चिमोत्तर भारत पर यशोवर्मन की विजय की पुष्टि मानिपाल से मिली उसकी मुद्राओं से तथा नालन्दा अभिलेख में उसके रक्षा मंत्री के लिए प्रयुक्त 'मार्गपति' (सीमाओं का रक्षक), उदीचीपति (उत्तर दिशा का रक्षक) आदि उपाधियों से होती है।

चीनी सूत्रों से विदित होता है कि आरम्भ में मध्य भारत का शासक यशोवर्मन तथा कश्मीर का शासक ललितादित्य मुक्तापीड आपस में मित्र थे और दोनों ने ही अपने दूत चीनी सम्राट के दरबार में भेजे थे लेकिन कालान्तर में पंजाब और उसके समीपवर्ती क्षेत्र पर अधिकार के प्रश्न को लेकर उनमें संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। राजतरंगिणी के अनुसार इस संघर्ष में अंततः ललितादित्य की विजय हुई थी और यशोवर्मन ललितादित्य का गुणगान करने के लिए बाध्य हो गया था और कन्नौज का यमुना नदी से लेकर काली नदी तक का क्षेत्र ललितादित्य के अधिकार में आ गया था। डॉ. त्रिपाठी के मतानुसार ललितादित्य ने कन्नौज पर यह आक्रमण 737 ई. के आस-पास किया था। 

तिथि- यशोवर्मन कश्मीर नरेश ललितादित्य का समकालीन था। राजतरंगिणी के अनुसार उसने 695 ई0 से 731 ई० तक राज्य किया। लेकिन यह मान्य तिथि नहीं है अनेक विद्वानों ने इसे मान्यता नहीं दी है। डॉ. आर. एस. त्रिपाठी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यशोवर्मन का राजत्व काल 725 ई0-752 ई० तक मानते हैं। लेकिन वी.ए. स्मिथ इसका शासन काल 728 ई0-745 ई0 तक मानते हैं। यशोवर्मन ने चीन में अपना दूत 731 ई० में भेजा था अतः वह इसके पूर्व ही सिंहासनासीन हुआ होगा।

यशोवर्मन शैव था। वह केवल पराक्रमी ही नहीं अपितु विद्यानुरागी भी था। वह विद्वानों का आश्रयदाता था उनके दरबार भवभूति और वाक्पति जैसे सभासद थे। भवभूति ने उत्तररामचरित, महावीर चरित और मालती माधव जैसे ग्रंथों की रचना की।

निष्कर्ष

इंपॉर्टेंट हब मैं आपका स्वागत है सपोर्ट के माध्यम से हम आपको वर्धनवंश के प्रतापी शासक हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत की स्थिति अराजक हो चुकी थी। 

FAQ

Q. यशावर्मन कहाँ का शासक था?

A. यशोवर्मन प्रथम या यशोवर्मन देव प्रथम चन्देल, 925–950 ईस्वी), लक्षवर्मन के रूप में भी जाना जाता है, मध्य भारत के चन्देल राजवंश के एक सम्राट थे, 

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