चालुक्य वंश वातापी
छठी शदी में जब उत्तर भारत में लौखरिचों और उत्तरगुप्तों का संघर्ष चर रहा था तथा सदूर दक्षिण में पल्लवों कि शक्ति का उत्कर्ष हो रहा था। इस शताब्दी के मध्यास में बीजापुर जिले में स्थित वातापी नगर को केन्द्र बनाकर चालुक्य सत्ता का उत्कर्ष प्रारंभ हुआ। इन चालुक्यों को प्राय: बादामी का चालुक्य भी कहते हैं। यह वंश दक्षिण भात का अत्यंत यशस्वी राजवंश सिद्ध हुआ वंशी के चालुक्य कल्याणी के चालुक्य तथा गुजरात के चालुक्य जिन्होंने वादामी के चालुक्यों के बाद शासन किया, आदरपूर्वक इनका उल्लेख करते हैं तथा इनके साथ संबंध जोने का प्रयत्न करते हैं।
अभिलेखों में इन्हें चुलक चलक्य तथा संततंत्र सूसीक श्री कहा गया है। इनकी उत्पत्ति के संबंध में कतिपय अभिलेख यह कहते हैं कि ये ब्रह्मा के चूलूक से उत्पन्न हुए इसलिये चालुक्य कहलायें कौथेम अभिलेख में जो विक्रमादित्यपञ्चम का है यह सूचना देता है कि ये लोग प्रारंभ से उत्तर कौशल में अयोध्या में राज्य कर रहे थे और वही से कुछ पीढ़ियों बाद ये दक्षिण में जाकर बस गये किन्तु अन्य अनेक अभिलेखों में इन्हें मानज्य ग्रोत्र का कहा गया है तथा हारीति पुत्र कहा गया है। इसी प्रकार सातवाहनों को भी मानल्य ग्रोत्र का बताया गया है। अतः अनेक आधुनिक इतिहासकार यह मानते हैं कि ये लोग मूलतः महाराष्ट्र, कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे और यही उन्होंने अपनी सत्ता का उत्कर्ष भी किया।
प्रारम्भिक शासन :- चालुक्य वंश के प्रारम्भिक शासनों में जयसिंह और रणराग के नाम से उल्लेखनीय है, यद्यपि इनके शासन काल के अभिलेख नहीं मिलते किन्तु परवर्ती अभिलेखों में इनके विषय में कुछ सूचनाएं प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर आधुनिक इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकालने के प्रयत्न किये है कि जयसिंह के लिये श्री वल्लभ तथा पृथ्वी वल्लभ जैसे उपाधियों को प्रयोग है किन्तु ऐसा नहीं प्रतीत होता है कि यक एक स्वराज्य शासक या कुछ इतिहासकारों को मान्यता है।
कि ये प्रारंभ में राष्ट्र इसके अधीन थे फिर राष्ट क्रूर इंद्र से संघर्ष करके जयसिंह ने स्वयं राज्य की स्थापना की किन्तु इस मत के संबंध में संदेह व्यक्त किया गया है और अधिकांश इतिहासकार ये मानतें है कि जय सिंह कदम्बों के अधीन सामन्त शासक रहा होगा। इसकी राजनैतिक उपलब्धियों के विषय में विशेष सूचना नहीं मिलती हैं। इसके बाद शासन करने वाले रणराग का उल्लेख मिलता है इसके लिये मे सत्याश्रय तथा श्री वल्लभ जैसी उपाधियों का प्रयोग है किन्तु इसके भी सामरिक सफलताओं का कोई विश्वसनीय विवरण नहीं प्राप्त होता है।
पुलकेशिन प्रथम: वातापो के चालुक्य वंश का पहला शक्तिशाली शासक पुलकेशीन प्रथम या अनेक इतिहासकार पुलकेशी प्रथम को हो वातापी के चालुक्य वंश का वास्तविक संथापक मानते हैं इसके नाम को लेकर किंचित विवाद है फ्लीट महोदय का कहना है कि पुलकेशी में पुल शब्द कन्नड़ भाषा है जिका अर्थ स्याह होता है और केशी शब्द संस्कृत का है दोनों को मिलाकर इसका अर्थ हुआ।
व्याघ्रकेशी किन्तु नीलकंठ शास्त्री इन दोनों ही शब्दों को संस्कृत मानते हैं और इसका अर्थ विपुलकेशी कहते हैं। चालुक्य अभिलेखों में मुख्यत: पुलकेशी प्रथम के निर्माणकार्य तथा उसके धार्मिक सांस्कृतिक क्रियाकलापों का वर्णन है। इसके संबंध में यह कहा गया है कि इसने वातापी नगर का पूर्वीकरण कराया तथा इसे अन्य लंगर का रूप दिया इसने विष्णु मंदिर का निर्माण कराया। अभिलेखों में इसकी तुलना ययाति, दिलीप जैसे पौराणिक राजाओं के साथ की गई है इसे अश्वमेध 'यज्ञ का सम्पादन करने वाला कहा गया है। इसके अतिरिक्त इसे अग्निस्टोम वाजपेय, हिरण्यगंध आदि अनेक फलों का भी सम्मान करने वाला कहा गया है। अभिलेखों में इसके व्यक्तित्व को अतिशय प्रशंसा की गयी है यह कहा गया है कि मनुस्मृति के स्थापना की। इसने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया था। अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति का तथा सत्य के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति था। इसे सत्याश्रय श्री वल्लभ, पृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। दिनेश चंद सरकार का यह मत है पुलकेशी प्रथम ने ही स्वतंत्र राज्यवंश की स्थापना की संभवत: इसने बीजापुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों की जीतकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और वातापी को अपनी राजधानी बनायी इसी के शासनकाल से चालुक्यशक्ति का विस्तार प्रारंभ होता है। इसके दो पुत्र थे. पहला कीर्तिवर्मा और दूसरा मंगलेश पुलकेशी को मृत्यु 566-67 ई0 के आसपास हुयी और उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र कोर्तिवर्मा शासन हुआ।
कीर्तिवर्मा प्रथम :- कीर्तिवर्मा प्रथम ने अपने पिता पुलकेशी प्रथम द्वारा स्थापित राज्य का विस्तार किया। उसके संबंध में दो महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती है एक बात तो वह सत्य होती कि कीर्तिमा ने अग्न, वंश और मगध को विजय किया था और दूसरी बात यह कि उसने दक्षिण में नलमौर्य और कुछ राजाओं को पराजित किया था। इसके संबंध में कहा गया है नलमौर्य कदम्ब कालरात्रिः अर्थात यह नलो मौर्यो और कदम्बों के लिये कालरात्रि के समान था इसकी प्रशंस करते हुए मंगलेश के काल के महाकूट अभिलेख में यह कहा गया है कि इसमें प्रायः सभी पड़ोसी राजाओं का पराभूति किया किन्तु यह कथन अति रंजनापूर्ण लगता है। कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि कीर्तिवर्मा ने बंगाल और मगध क्षेत्र पर आक्रमण किया और कदाचित इसके आक्रमण के कारण ही महासेनगुप्त को मगध से अधिकार समाप्त हो गया था। कुछ अन्य इतिहासकार मौखरियों के साथ इस संबंध की संभावना व्यक्त करते हैं किन्तु इस विषय में निश्चितपूर्व कुछ नहीं कहा जा सकता है। यदि इसका आक्रमण हुआ भी तो यह धन के लिये हुआ होगा। इस क्षेत्र पर कीर्तिवर्मा का अधिकार नहीं
स्थापित हुआ। दक्षिण की ओर कोर्तिवर्मा को अवश्य महत्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त हुई इसने नलों को पराजित कर उनके क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। नलों का राज्य वातापी जिले के आसपास फैला हुआ था। मीयों को इसने पराभूत किया। मौर्य राज्य कोंकण में स्थित था। कोंकण बम्बई के दक्षिणी का समुद्र तटवर्ती क्षेत्र है जो व्यवहारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था कोंकण विजय करने के बाद स्वाभिराज नामक एक सामन्त को इसने वहां का प्रशासक नियुक्त किया। इसने अनवासी के कदम्ब का उन्मूलन नहीं कर सका यथापि अनेक राज्य के कुछ आशों को अपने अधीन कर लिया। इस प्रकार उसने दक्कन में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली। इसने लगभग 567 से 597-98 ई० तक राज्य किया। यह धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था इसने भी एक अन्य शिव मंदिर का निर्माण प्रारंभ कराया जो आगे चलकर इसके उत्तराधिकारी और भाई मंगलेश द्वारा पूरा कराया गया. इसने ब्राह्मणों को बहुत सारे ग्राम दिन में दिये थे।
मंगलेशकीर्ति वर्मा : कीर्तिवर्मा प्रथम का पुत्र अल्पव्यस्क था। अतः उसके संरक्षक के रूप में कीर्तिवर्मा के अनुज मंगलेश ने राज्य संभाला, उसने 606 ई० तक शासन किया। मंगलेश ने अपने अंग्रेज द्वारा चलायी गयी विजय और विस्तार की नीति को जारी रखा, इसके शासन काल के अभिलेख ताथा नेसुर दानपत्र से यह सूचना मिलती है कि इसने कल्चुरि वंश की राज्यलक्ष्मी का अपहरण कर लिया कल्चुरि वंश का समकालीन शासक शंकरगण का पुत्र बुद्धराज था जिसका शासन गुजराज मालवा और खानदेश पर था, मंगलेश ने बुद्धराज को पारित कर थोड़े समय के लिये कच्चुरि क्षेत्र पर अधिकार कर लिया किन्तु ऐसा लगता है कि वह उत्तरभारत की राजनीति में उलझना नहीं चाहता था।
अतः कच्युरियों की सम्पत्तियों को लूट कर वह वापस लौट गया। उनके क्षेत्रों पर स्थायी रूप से अधिकार नहीं किया। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान दिया तथा कीर्तिवमां के काल के अधूरे मंदिरों का निर्माण पूरा किया। दक्षिण में इसमें रेवती द्वीप की विजय की, रेवती द्वीप गोवा और उसके आसपास के छोटे द्वीपों को कहते थे। यह क्षेत्र व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था अतः इसने राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए एक विशाल सेना के साथ रेवती के द्वीप पर आक्रमण किया और उसे अपने अधीन कर लिया। यह द्वीप कोंकणा से लगा हुआ था इसलिये उसने कोंकण के प्रशासक स्वामिराज को ही रेवती द्वीप के प्रशासन का दायित्व सौप दिया।
असफलता डास
वृद्धावस्था में मंगलेश के मन में चालुक्य राज्य सिंहासन को अपने पुत्र के लिये सुरक्षित करने का मोह उत्पन्न हो गया परिणामतः कौतिवर्मा के पुल पुलकेशी द्वितीय के साथ वैमनस्य हो गया। पुलकेशन द्वितीय तरूण हो चुका था उसे अनेक सेनापतियों, सामन्तों तथा मंत्रियों का सहयोग मिला। दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें मंगलेश को अपने जीवन तथा राज्य सिंहासन दोनों से हाथ धोना पड़ा।
पुलकेशिन द्वितीय : 609-10ई0 से 642 ई0 मंगलेश के उपरान्त कोतिवर्मा का पुत्र पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य राज्य सिंहासन का स्वामी बना जो अपने वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक सिद्ध हुआ। पुलकेशिन का राज्यारोहण अत्यंत विषम परिस्थितियों में हुआ था रेहो० अभिलेख से ज्ञात होता है कि राज्य सिंहासन के लिए पुलकेशिन द्वितीय का चाचा मंगलेश के साथ संघर्ष हुआ और इस संघर्ष में मलेश को राज्य सिंहासन, अपने प्राण, अपने पुत्र को राजा बनाने की आकांक्षा के कारण हुआ। यह भयंकर गृहकलह का काल