Vardhan वंश के संस्थापक कौन थे? पूरी जानकारी

 वर्धन वंश

दिल्ली और पंजाब के भू भाग पर बसा हुआ श्रीकण्ठ' प्राचीन काल में अत्यंत समृद्धशाली जनपद था। थानेश्वर (हरियाणा प्रान्त के करनाल जिले में स्थित वर्तमान थानेसर नाम स्थान) इसी के अन्तर्गत एक प्रदेशथा। इसी प्रदेश में पुष्यभूति नाम राजा हुआ, जिसने छठी शताब्दी इस्वी के प्रारम्भ में पद्धन राजवंश की स्थापना की, परन्तु हर्ष के लेख उसकी वंशावली नरवर्द्धन से प्रारम्भ करते हैं। 


जिसने यमुना के ऊपरी घाटी में एक लघु राज्य स्थापित किया था। वस्तुत: थानेश्वर के राजवंश का संस्थापक नरवर्धन ही था। उसके समय से इस वंश के राजाओं के नामान्त में 'वर्धन' शब्द जुड़ा मिलता है। इसी कारण यह वंश वर्धन वंश के नाम से प्रसिद्ध है। मधुवन और बॉसखेड़ा अभिलेखों एवं सोनपत और नालन्दा से प्राप्त मुद्राओं से वर्धन वंश के निम्नलिखित प्रारम्भिक राजाओं के नाम प्राप्त होते हैं- नरवर्धन राज्यवर्द्धन, आदित्य वर्द्धन और प्रभाकर वर्धन।


प्रभाकर वर्द्धन

थानेश्वर के वर्द्धनों का क्रमबद्ध एवं विस्तृत इतिहास प्रभाकरवर्द्धन के समय से मिलने लगता है। वस्तुतः वह इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाताथा, अपनी स्वतंत्र स्थिति को सूचित करने के लिए उसे 'परमभट्टारक' तथा 'महाधिराज' जैसी सम्मानपरक उपाधियाँ धारण की। वह प्रतापशील नाम से दूर-दूर तक विख्यात था। प्रभाकर वर्द्धन की कई रानियाँ थी इसमें यशोमती उसकी प्रधान रानी थी। यशोमती से दो पुत्र राज्यवर्द्धन और हर्षवर्धन तथा एक पुत्री राज्यश्री उत्पन्न हुई।

राज्यवर्धन एवं उनके मृत्यु की परिस्थितियां वर्धन वंश के शासक प्रभाकरवर्द्धन की भार्या यशोमती से दो पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन उत्पन्न हुए और एक पुत्री राज्यश्री। सांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेख भी राज्यवर्धन की चर्चा करते हैं। राज्यवर्धन की बहन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौरवरियों के मध्य मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया। हर्षचरित के विवरण से ज्ञात होता है कि हर्ष और राज्यवर्धन हूणों के विरुद्ध युद्ध के लिए उत्तरी पश्चिमी सीमा की ओर से निकले लेकिन राज्यवर्धन मृगया के आकर्षण में हिमालय के क्षेत्र में ही रूक गया इसी बीच हर्ष को सूचना मिली कि उसके पिता गम्भीर रूप से बीमार हैं तो वह राजधानी लौट आया तथा राज्यवर्धन को बुलाने के लिए दूत भेजे गये। यह समाचार पाकर राज्यवर्धन थानेश्वर आ गया लेकिन उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थीं। अपनी पिता की मृत्यु से दुःखी होने के कारण वह सन्यास लेना चाहता था लेकिन उस समय राज्य श्री के एक अनुचर ने उसे बताया कि-

"यस्मिन्नहनि अवनिपतिरूपरत इति अमृत वा तस्मिन्नेव ग्रहां.... राज्यश्रीः कालायसनिगचुम्बित चरणा भीरागणेव संयत.... (हर्षचरित) अर्थात् जिस दिन राजा की मृत्यु उसी दिन मालवा के दुष्ट शासक ने महाराज ग्रहवर्मा की हत्या कर दी राज्यश्री चौरांगन के सदृश कन्नौज के बंदीगृह में डाल दी गयी तथा उसके पैरों में बेड़ियो पहना दी गयी है। यह भी ज्ञात हुआ है कि वह दुष्ट यहां की सेना की नेताविहीन जानकर इस देश पर भी आक्रमण करने का विचार रखता है। यह सब सुनकर राज्यवर्धन सन्यास का इरादा छोड़कर तत्काल मालवराज को दण्डित करने सेना सहित चल पड़ा। उसके साथ उसका ममेरा भाई मण्डि भी गया। हर्षचरित मधुवन तथा मांसखे के विवरण से ज्ञात होता है कि वहां अत्यन्त सरलता से राज्यवर्धन ने देवगुप्त को मार डाला, परन्तु देवगुप्त के मित्र गौराज शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्धन की हत्या कर दी। राज्य की हत्या के संदर्भ में ऐतिहासिक साक्ष्य अनेक तथ्य उद्घाटित करते हैं-

 (1) 

राजनीति दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादयः ।

ये कशाप्रहार विमुखास्सर्वे समं संयताः ।।

उत्खाय द्विपती विजित्व वसुधाम् कृत्वा जनानांप्रियः ।

प्राणानुज्झितवानरातिभवेन सन्यौनुरोधेन यः ।।

बांसखेड़ा अभिलेख अर्थात दुष्ट चोड़े के समान देवगुप्त तथा अन्य राजाओं को, जो बाबुक के प्रहार से अपना मुंह फेर देने के लिए बाध्य किए गये थे, एक साथ जीतकर अपने शत्रुओं को जड़ से उखाड़ कर संसार पर विजय प्राप्त कर, प्रजा को संतुष्ट कर, राज्यवर्धन ने शत्रु के घर में सत्य के अनुरोध से अपने प्राण त्याग दिये।

(2) बाण के हर्षचरित से सूचना मिलती है कि जब राज्यवर्धन ने बड़ी आसानी से मालवसेना को हरा दिया तो गौराज मिथ्याचार द्वारा विश्वास दिलाकर राज्यवर्धन को अपने घर ले गया तथा जब वे वहां अकेले और निःशस्त्र थे तो उन्हें मार डाला-

तस्माच्च हेलानिर्जितमालवानीकमापि गौड़धिपेन

मिथ्योपचारोपचित विश्वासं मुक्शस्त्रं एकाकिननं.... 

(3) हर्षचरित पर टीका करते हुए शंकराचार्य ने नूतन तथ्य दिया है कि शशांक से दूत भेजकर राज्यवर्धन को यह वचन दिया था कि अपनी कन्या का विवाह उनके साथ कर देगा। इस प्रकार विश्वास उत्पन्न कर वह उन्हें अपने घर ले गया और जब वह भोजन कर रहे थे तो छल से मार डाला।

(4) ह्वेनसांग का भी कथन है कि हर्ष का पूर्ववर्ती शासक (राज्यवर्धन)

कर्णसुवर्ण के दुष्ट राजा शशांक द्वारा छल से मारा गया। (5) डॉ. आर. सी. मजूमदार इस तथ्य पर आपत्ति करते हैं कि शशांक विश्वासघात से राज्यवर्धन की हत्या की थी। उनका मत है कि बाण और हवेनसांग दोनों हर्ष के आश्रम में रहते थे अतः उनकी सूचना विश्वास योग्य नहीं है। शंकर के मत पर मजूमदार महोदय का मत हैं। कि वह 14वीं शताब्दी में हुआ था दोनों के समय में काफी अन्तर है अतः उनका कथन भी असत्य हो सकता है।

लेकिन डॉ. मजूमदार के तर्क लचर हैं। बाण के ऐतिहासिक विवरण पर विश्वास किया जा सकता है, बाण ने अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का यथावत् उल्लेख किया है। हवेनसांग ने पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य द्वारा हर्ष की पराजय का उल्लेख किया है। अतः इन दोनों पर अविश्वास करना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। श्री आर0पी0 चन्दा का यह मत असंगत है कि राज्यवर्धन युद्ध करते हुए अथवा आत्म समर्पण करने के बाद मारा गया। अतः यही मत समीचीन प्रतीत होता है कि अपने मित्र देवगुप्त की हार से गौड़राज शशांक घबड़ा गया। उसने राज्यवर्धन का बजाए युद्ध में सामना करने उसे धोखे से मारना आसान समझा।


हर्षवर्द्धन

हर्ष के शासन और उसके जीवन पर प्रकाश डालने वाले साक्ष्य इतिहास में भरे पड़े है। इनमें मुख्य स्रोत हर्ष के दरबार में रहने वाले वाणरचित 'हर्षचरित' है। इसके अतिरिक्त ह्वेनसांग की कृति सी यू की भी हर्ष के सम्बन्ध में विस्तृत सूचना देती हैं। हर्ष द्वारा रचित नाटक रत्नावली, नागानन्द और प्रियदर्शिका से हर्षकालीन घटनाओं के संदर्भ में जानकारी मिलती है। पुरातात्विक स्रोतों से भी हर्ष के विषय में महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती है। इन स्रोतों में 6310 ई0 के मधुतन अभिलेख, 628 ई० का बांसखेड़ा अभिलेख, सोनीपत अभिलेख, रोहोल अभिलेख, रोहतासगढ़ मुद्रा लेख, निधानपुर अभिलेख आदि महत्वपूर्ण है।

राज्याभिषेक हर्ष संवत् का आरम्भ 606 ई0 में हुआ था। अतः हर्ष के सिंहासनासीन होने की तिथि भी यही होनी चाहिए। चीनी साक्ष्य 612-613 ई0 के आस-पास हर्ष के राज्यारोहण का समय मानते हैं। हर्षचरित में उपलब्ध हर्ष के जन्म काल से सम्बन्धित विवरण के आधार पर सी०वी० वैद्य ने हर्ष की जन्मतिथि 4 जून 590 ई0 निश्चित की है। ध्यातव्य है कि हर्ष 16 वर्ष की अल्पायु में ही राजा बना था। वह प्रभाकरवर्धन और रानी यशोमती का कनिष्ठ पुत्र था। प्रारम्भिक चुनौतियां हर्ष जब राजगद्दी पर बैठा तो उस पर विपत्ति के बादल छाए हुए थे। उसके पिता और भाई की मृत्यु तभी हुई थी। तथा बहन राज्यश्री कारागार में बंद थी अतः उसके समक्ष दो मुख्य समस्याएं थी- 1. शशांक को मार कर बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या का बदला लेना

2. राज्यश्री को कन्नौज के कारागार से मुक्त करना। हर्ष ने कामरूप के शासक भास्कर वर्मा से मित्रता कर ली। भास्कर वर्मा भी शशांक का शत्रु था, अतः शशांक पर विजय प्राप्त करने में हर्ष को सहायता कर सकता था। तत्पश्चात शक्तिशाली सेना के साथ हर्ष ने कन्नौज की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में हर्ष को भांडी मिला जो राज्यवर्धन की हत्या के पश्चात् मालवराज की सेना के साथ थानेश्वर लौट रहा था। भांडी से हर्ष को पता चला कि कन्नौज पर 'गुप्त' नामक किसी व्यक्ति ने अधिकार कर लिया है तथा राज्यश्री विन्ध्याचन की ओर भाग गई है। हर्ष ने शशांक पर आक्रमण का कार्य भाण्डी को सौंपा व स्वयं राज्यश्री को खोजने के लिए विन्ध्याचल की ओर गया। विन्ध्याचल पहुंचकर वह राज्यश्री को ढूंढने में सफल रहा। राज्यश्री चिता में कूदकर आत्महत्या करने ही वाली थी कि हर्ष पहुंच गया व उसे अपने साथ ले आया।

हर्ष के सैन्य अभियान इतिहास में हर्ष की ख्याति दिग्विजयी सम्राट के रूप में है। उसकी सेना ने कश्मीर, पंजाब तथा कामरूप को छोड़कर समस्त उत्तर भारत की यात्रा की। ये देश भी उसके प्रभाव क्षेत्र में आ गये थे। उसे अपने साम्राज्य का विस्तार करना था। सामंतों की स्वतंत्रता का दमन करता था, इसके लिए उसने विजय यात्रा प्रारम्भ की।

1. गौड़ देश पर आक्रमण- गौड़ साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनापति भण्डी को भेजा था। बौद्ध विद्वान दिवाकर मिश्र ने भी हर्ष की मदद की। प्रारम्भिक अभियान में हर्ष को सफलता नहीं मिली क्योंकि गंजाम अभिलेख के अनुसार 619 ई० तक शशांक स्वतन्त्रतापूर्वक शासन कर रहा था। हवेनसांग ने हर्ष और शशांक में में अन्तरवर्ण निरन्तर 6 वर्ष तक निरन्तर युद्ध चलते रहने का उल्लेख किया है, यद्यपि हर्ष चरित्र में शशांक पर हर्ष की विजय का उल्लेख नहीं मिलता तथापि चीनी ग्रन्थ में गौड़ पर हर्ष की विजय का उल्लेख है। वेनसांग ने लिखा कि "शिलादित्य ने पूर्व से पश्चिम तक के देशों को जीत लिया था और क्रम शशांक को भी पराजित किया था।" 2. पंच भारत की विजय- हवेनसांग के अनुसार हर्ष ने पूरब की तरफ बढ़ते हुए उन राज्यों पर आक्रमण किया जो उनकी नहीं किए थे और उसका अभियान वर्षो तक जारी रहा। उसने पंच भारत से विख्यात पंजाब (स्वराष्ट्र) सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, मिथिला और उत्कल राज्यों को जीता।


3. बल्लभी विजय- गुर्जर नरेश दद्दा के नौसारी दानपत्र में वर्णन है- हर्ष ने बल्लभी नरेश के यहां शरण ली बाद में बल्लभी नरेश के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर हर्ष ने अपने एक शत्रु को मित्र बना लिया। यह कार्य उसके राजनीतिक कूटनीतिज्ञता का परिचायक है।


पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध- पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का शक्तिशाली राजा था। हवेनसांग उसकी शक्ति एवं प्रभाव की प्रशंसा करता है। हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुंच गयी। उधर पुलकेशिन भी उत्तर की ओर राज्य का विस्तार चाहता था। ऐसी स्थिति में दानों के बीच युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। फलस्वरूप हर्ष और पुलकेशिन के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्ष की पराजय हुई। इस युद्ध के विषय में दो प्रमाण मिलते हैं-

1. पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल से प्राप्त अभिलेख जिसके अनुसार-

अपरिमित विभूति स्फीति सामन्त सेना,

मुकुटमणि मयूखा कान्त पादार विन्दः ।

 युधिपतित गजेन्द्रानीक वीभत्स भूतो,

भय विगलित हर्षो येन चाकारि हर्ष ।।

निष्कर्ष

इंपॉर्टेंट हब मैं आपका स्वागत है इस पोस्ट के माध्यम से हम एशियन हिस्ट्री से संबंधित वर्धन वंश पूरी जानकारी इस पोस्ट के माध्यम से आप तक पहुंचा दी गई है अगर पोस्ट हमारा अच्छा लगे तो अधिक से अधिक शेयर करें। 

FAQ

Q. Vardhan वंश के संस्थापक कौन थे?

A. सही उत्‍तर वर्धन है। पुष्यभूति वर्धन वंश का संस्थापक था। अपने पौराणिक लेख 'हर्षचरित' में, बाणभट्ट ने वर्धन वंश की उत्पत्ति का विवरण दिया है।

Q.वर्धन कौन सी जाति होती है?

A. वर्द्धन या वर्धन वंश को 'पुष्यभूति वंश' भी कहा जाता है। इसकी राजधानी थानेश्वर थी। इस वंश का सबसे महान और ख्याति प्राप्त राजा हर्षवर्धन था।

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