सामाजिक सीख (SOCIAL LEARNING)
जन्म के समय मानव शिशु एक प्राणीशास्त्रीय इकाई होता है। वह सामाजिक आदर्शी, व्यवहारों, रीति रिवाजों, प्रथाओं, धर्म एवं संस्कृति से अपरिचित होता है। उसे भाषा का ज्ञान नहीं होता है, अतः वह अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में असमर्थ होता है। ऐसी स्थिति में वह सामाजिक प्राणी कहलाने के योग्य नहीं होता क्योंकि उसमें सामाजिक गुण विद्यमान नहीं होते हैं। किन्तु समाज के सम्पर्क के कारण वह अनेक बातें सीख लेता है, सामाजिक गुणों का अर्जन कर लेता है और समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा एक सामाजिक सांस्कृतिक प्राणी बन जाता है। मानव में कई गुण ती जन्मजात होते हैं, उनमें प्राणीशास्त्रीय गुण प्रमुख है। किन्तु कई गुण यह सामाजिक सम्पर्क के कारण ग्रहण करता है। ये दोनों ही प्रकार के गुण व्यक्ति के सम्पूर्ण पर्यावरण से अनुकूलन में सहायक होते हैं। किन्तु पर्यावरण से अनुकूलन में जन्मजात या प्राणीशास्त्रीय विशेषताओं का योगदान सीमित होता है, अतः मानव को अनेक सामाजिक गुणों को अर्जित करना होता है और यह कार्य सीखने की प्रक्रिया द्वारा ही होता है। सीखने की प्रक्रिया एक मनो-सामाजिक प्रक्रिया है। सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मानव अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में की जाने वाली सामाजिक अन्त क्रिया के दौरान व्यवहारों को सीखता है।
सामाजिक सीख का अर्थ एवं परिभाषा
(MEANING AND DEFINITION OF SOCIAL LEARNING)
सामाजिक सीख को परिभाषित करते हुए किम्बाल यंग लिखते हैं, "सामाजिक सीख कुशलताओं, यथार्थताओं और मूल्यों को अर्जित करने की ओर संकेत करता है जो अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में रहकर अभ्यास के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं।" इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सामाजिक सीख का कार्य अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क से ही सम्भव है। अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क के कारण व्यक्ति जो कुशलता एवं सामाजिक मूल्य बार-बार अभ्यास के कारण ग्रहण करता है, उसे ही सामाजिक सीख कहते है। सामाजिक सीख के कारण व्यक्ति के पुराने व्यवहार में नवीन परिवर्तन आते हैं। सीखने को मानव व्यवहार में परिवर्तन के रूप में परिभाषित करते हुए गिलफोर्ड लिखते हैं, "हम इस शब्द की परिभाषा विस्तृत रूप में यह कहकर कर सकते हैं कि सीखना व्यवहार के परिणामस्वरूप व्यवहार में कोई न कोई परिवर्तन है।
बर्नहर्ट के अनुसार, “एक परिस्थिति विशेष में किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति करने अथवा किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा एक व्यक्ति के कार्य में बहुत कुछ स्थायी परिवर्तन लाये जाने को
सीखना कहते हैं। जी. डी. बोआज के अनुसार, "जीवन की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति जिस प्रक्रिया के द्वारा अनेक प्रकार की आदतें, ज्ञान और मनोवृत्तियां विकसित करता है, उसी को हम सीख कहते हैं।"
1 "Social learning refers to the acquisition of skills, facts and values which come about as a result of practice in our contact with other persons." -Kimball Young, A Handbook of Social Psychology, p. 35.
2 J. P. Guilford, General Psychology, p. 343. Bern Hardt, Practical Psychology. P. 259.
उपर्युक्त परिभाषाओं से है कि सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सम्पूर्ण पर्यावरण से अनुकूलन करने के लिए नवीन को अर्जित करता है और उन्हें अपने व्यवहार में स्थायित्व प्रदान करता है। सीखने की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति को नये नये अनुभव होते हैं। सीखने की प्रक्रिया ही समाजीकरण की प्रक्रिया को बनाती है। विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर सीख की निम्नांकित विशेषताएं प्रकट होती है।
(1) सीखना एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। सीखने की प्रवृत्ति जन्मजात नहीं होती है
वह समाज के सम्पर्क से मानव के प्रयन एवं अनुभव से ही सम्भव हो पाती है। सीखना एक सहज क्रिया नहीं है।
(2) सीखने का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यह उद्देश्य मानव को अपने सम्पूर्ण पर्यावरण से अनुकूलन स्थापित करने में सहयोग प्रदान करना है। या स्थायी हो सकते
(3) सीखने की प्रक्रिया में मानव व्यवहार में परिवर्तन आते हैं। ये परिवर्तन क्षणिक है। सौख के द्वारा मानव अपने पुराने व्यवहारों को सुधारता है, परिमार्जित एवं संशोधित करता है या न्यागता हैं और उनके स्थान पर नये व्यवहारों को प्रतिस्थापित करता है।
(4) सीखना नये व्यवहारों की अर्जित करना एवं उन्हें अपने भविष्य के व्यवहारों में स्थायित्य प्रदान करना है।
(5) सीखने के दौरान व्यक्ति विभिन्न प्रकार की आदतों एवं व्यवहारों को संगठित करता है, जैसे विभिन्न अक्षरों एवं शब्दों को संगठित कर वह भाषा को सीखता है।
(6) सीखने के लिए किसी किया को बार-बार दोहराया जाता है जिससे यह मानव मस्तिष्क में गहरी जम जाती है और स्थायित्व ग्रहण कर लेती है।
(7) सीखने का सम्बन्ध परिपक्वता से घनिष्ठ रूप से है। जब तक मानव में परिपक्वता नहीं आती सीखने का कार्य सम्भव नहीं हो पाता। जन्म लेते ही बच्चे को भाषा का उच्चारण, कलम से लिखना, स्कूट चलाना, टाइप करना, मशीन चलाना नहीं सिखाया जा सकता क्योंकि उस समय उसमें शारीरिक परिपक्वत नहीं होती। आयु के बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक परिपक्वता आती जाती है और मानव शिशु अनेक बा को सीखने के योग्य बनता जाता है।
(8) सीखना गलत या सही भी हो सकता है।