योग का परिचय ,PG NOTES

 योग विश्वमानव के लिए भारत की महानतम् उद्भावना और उद्घोषणा है। सफल व्यक्ति और सभ्य समाज को योग से विशिष्ट कोई अन्य संकल्पना अद्यावधि तो अप्राप्त है। योग मनुष्य के अंदर सुप्तप्रायः अंतर्दृष्टि को प्रबोधित और आंदोलित करता है। योग का संस्पर्श बुद्धि को पर्वत से भी सुदृढ और समुद्र से भी गंभीर बना देता है। अवसाद के क्षणों में योग का साहचर्य सघन विश्रांति देने वाला है। यह शंकालु चित्त को निःशक कर दिव्य प्राप्तियों के आश्वासन से पूरित कर देने वाला है।


  योग का अर्थ 'मिलना', 'जुड़ना', 'संयुक्त होना' आदि है। जिस विधि से साधक अपने प्रकृतिजन्य विचारों को त्यागकर अपनी आत्मा के साथ संयुक्त होता है, वही योग है। योग शब्द की व्युत्पत्ति की दो परंपराएं हैं-

1. युजिर योग

2. युज समाधी

संस्कृत भाषा पाणिनी व्याकरण के अनुसार, योग शब्द जिस धातु से निष्फल है, वह द्विवादी, रुधादि और चुराद्वी तीन गुणों से प्राप्त होता है। व्याकरण शास्त्र में युज धातु से भाव धत्र प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्पन्न होता है। महर्षि पाणिनी के धातु पाठ के द्विवादी गण में युज समाधी, रुधादि गण में युजिर योगे तथा चुरादिगण में संयमने अर्थ में युज धातु आती है।

योग भाष्कर महर्षि व्यास जी ने इसी धातु के अर्थभूत तात्पर्य को लेकर 'योगसमाधि' अर्थात् योग को समाधि कहा। महर्षि पतंजलिकृत योग दर्शन का भी यही अभिप्राय है।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ||

तदा द्रष्टु स्वरूपऽवस्थानम् ।

2. रूपादिगणीय युजिरयोगे धातु से योग शब्द का निर्माण हुआ जिसका अर्थ है सम्मिलित होना या एक होना इस एकीकरण का अर्थ है, जीवात्मा या परमात्मा का मिलन। सामान्य शब्दों में इसे जुड़ना कहा जा सकता है। जैसे गणित में 2+2 = 4

मनुष्य के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षी

के एकीकरण से लिया जा सकता है। सर्वदर्शनसंग्रह में उद्धृत याज्ञवल्क्य के अनुसार, आत्मा परमात्मा का संयोग ही योग है

3. पुरादिगगीय युजसंयमने धातु से योग शब्द का निर्माण हुआ है। जिसका सामान्य अर्थ है, संयमन तथा नियमन (संयमन या संयमित कर लेना) । इसलिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि योगाड़ों के द्वारा मन तथा इंद्रियों को संयमित करने का विधान किया गया है।

शरीर विज्ञान की जानकारी और प्रयोगों के आधार पर हम स्वस्थता और दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं। तथा उनके आधार पर हम विभिन्न प्रकार की संपदाओं को प्राप्त करने तथा भोग का आनंद उठाते हैं। इसी प्रकार योग की जानकारी और साधना द्वारा मन बलवान, सुसंस्कृत, सूक्ष्मदर्शी तथा उन सभी वैभव को प्राप्त किया जा सकता है। 

जो मनःशक्तियों द्वारा प्राप्त होते हैं। तलवार पास रखना एक चीज है तथा उसे चलाना जानना दूसरी चीज है। मन तो सभी के पास है, परंतु उसका प्रयोग कर पाना योग के आधार पर ही संभव है। योग हमारी दैनिक आवश्यकता है, आरोग्यशास्त्र, आहारशास्त्र, चिकित्साशास्त्र आदि को जानकर और उसका अनुसरण करना जिस प्रकार व्यक्ति के लिए जरूरी है उसी प्रकार आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए योग का अर्थ जानना अत्यंत जरूरी है।

श्री शंकराचार्य की भाषा में अनुभवयुक्त ज्ञान ही विज्ञान सहित ज्ञान है और वही योग है। योग का अर्थ है-अपनी चेतना अस्तित्व का बोध, अपने अंदर निहित शक्तियों को विकसित करना तथा उस परमपिता का साक्षात्कार कर उसी में विलीन हो जाना, परन आनंद की प्राप्ति है। योग समाधि के द्वारा आत्मदर्शनपूर्वक स्वरूप व स्थिति को प्राप्त करना और अंत में कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही योग है और यही योग का वास्तविक अर्थ है।

आत्मा का परमात्मा के साथ सयुक्त होकर समाधि की अवस्था ही योग है और इसके अर्थ संयोजक, मिलन, संयोग तथा समाधि होते हैं। पाणिनीय संस्कृत व्याकरण के अनुसार, गन पाठ में तीन युज धातु है तीनों ही धातुओं से योग निष्पन्न होता है। इसमें द्विवादिगणीय 'युज समाधी' धातु से जो योग शब्द का निर्माण हुआ है उसका अर्थ है, समाधि ।

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