विवाह के उद्देश्य एवं महत्व
प्राचीन भारत में विवाह सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था थी। इसी संस्कार के बाद व्यक्ति 'गृहस्थ जीवन' में प्रवेश करता था। विवाह के बाद ही वह धार्मिक कर्मकाण्डों के योग्य बनता था। प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्थाकारों ने विवाह के अनेक उद्देश्य बताए हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने इसके दो उद्देश्य-धर्म और प्रजा बताया है। रति को इसका लौकिक उद्देश्य कहा गया है।
इस प्रकार धर्म के तीन उद्देश्य कहे जा सकते हैं-
(1) धर्म भारतीय विवाह: का उच्चतम उद्देश्य धर्म है। धर्म और उससे सम्बन्धित कर्मकाण्डों, यज्ञों आदि का सम्पादन बिना पत्नी के संभव नहीं होता। स्मृतियों और पुराणों सहित अधिकांश धर्मशास्त्रों का मत है कि पत्नी के बिना सम्पादित धार्मिक क्रियाएं अधूरा फल देती हैं। पत्नी को पुरुष की अर्धागिनी कहा गया है। वह पुरुष का आधा अंग है। इसलिए धर्म के सम्पादन में महति योग पत्नी का होता है। रामायण से ज्ञात है कि राम को अश्वमेध यज्ञ के समय धर्मपत्नी सीता के अभाव में सीता की स्वर्ण प्रतिमा रखनी पड़ी थी। पत्नी के बिना किया जाने वाला यज्ञ, दान, तीर्थ यात्रा असफल होता है। इसीलिए धर्मशास्त्रों ने गृहस्थ के लिए विवाह को अनिवार्य बनाया गया है।
(2) प्रजा या पुत्र : प्राचीन भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज था। अतः हर व्यक्ति की इच्छा पुत्र की प्राप्ति होती थी। धर्मशास्त्रकारों ने भी पुत्र की महिमा का बहुलता से गान किया। धर्मशास्त्रों में पुत्र का अनिवार्यता पर बल दिया। धर्मशास्त्रों में इसके पीछे अनेक कारण बताए गये हैं। धर्मशास्त्रों का कथन है कि पुत्र की उत्पत्ति मात्र से व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है। उसके पितर इस आशा में प्रसन्न होते हैं कि चलो ! कुल में हमें पिण्ड देने वाला आ गया। गरुणपुराण में कहा गया है कि जिस व्यक्ति के पु नहीं होते वे "पुं" नामक नरक में जाता है। पुत्र हो जाने मात्र से व्यक्ति इस नरक में जाने से बच जाता है। जिसके पुत्र नहीं होता उसके पितर अत्यन्त दुःखित होते हैं। परिवार या कुल की वंश परम्परा के निरन्तरता के लिए भी पुत्र की आवश्यकता होती है। इन सब कारणों से विवाह को अनिवार्य बनाया गया। पुत्र की उत्पत्ति विवाह का दूसरा मुख्य उद्देश्य था।
(3) रति : तृतीय और लौकिक उद्देश्य के रूप में 'रति' को स्वीकार किया गया है। रति का तात्पर्य मानव में निहित काम भावना की तृप्ति से है। पति और पत्नी शारीरिक सुख के लिए विवाह करते हैं। इनसे उनके अन्दर अनिवार्यतः निहित काम भावना को तृप्ति मिलती है।
विवाह का महत्व : मानव का जीवन जब तक गृहस्थ आश्रम में नहीं रहता तब तक सफल नहीं माना जाता। महाभारत में इसे ही समस्त आश्रमों का मूल कहा गया है। गृहस्थ आश्रम का प्रारम्भ हो विवाह संस्कार से होता है। इसलिए महाभारत में कहा गया है कि विवाह माता के समान गृहस्थ आश्रम का संस्थापक है। इसके अभाव में व्यक्ति ब्रह्मचारी बना रहता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि जो पत्नी से रहित होता है वह अयज्ञीय होता है-
अयज्ञियों एषां वा योऽपत्नीकः ।।
पत्नी हीन व्यक्ति किसी भी यज्ञ को करने के योग्य नहीं होता। पत्नी के बिना पुरुष का मानसिक बलांश पूर्ण नहीं होता, इसलिए मानसिक जलांश पूर्ण करने के लिए, चित्त-वृत्तियों की एकाग्रता के लिए, धर्म • कार्य की पूर्ति के लिए स्त्री को होना आवश्यक है। यह धर्मकार्य की पूर्ति के लिए होती है इसलिए पत्नी कही गयी है। सपत्नीक पुरूष ही पूर्ण होता है अन्यथा वह अधूरा होता है।
वंश परम्परा की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए विवाह आवश्यक होता है। इसीलिए प्राचीन भारतीयों ने पुत्र उत्पत्ति पर बहुत बल दिया। शास्त्रकारों ने भी और सपुत्रों के अभाव में अनेक प्रकार के पुत्रों को मान्यता प्रदान की। पुत्रों की उत्पत्ति या ओर सपुत्र अनेक धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक माना गया है। पुत्रों की इस महत्ता ने विवाह नामक संस्था को भी बहुत महत्व प्रदान किया। विवाह ही और सपुत्र उत्पत्ति का माध्यम होता है। इसलिए ही प्राचीन भारतीय समाज में यह महत्वपूर्ण स्थान रखता था ।
मानव के अन्दर नैसर्गिक रूप से 'काम-भावना की प्रवृत्ति पायी जाती है। इसकी तृप्ति अत्यन्त आवश्यक है। काम भावना की तृप्ति न होने से वैयक्तिक विघटन का डर तो रहता है साथ ही साथ समाज में यौन अपराधों में वृद्धि होने का भय भी रहता है, इसीलिए विवाह को अनिवार्य बताया गया। मानव में जागृत होने वाले यौनाचारों को एक मर्यादित तरीका प्रदान किया गया जिससे उसके अन्दर की कामभावना तृप्त हो। इस दृष्टि से विवाह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्था हो जाती है।