प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श
शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श शिक्षा मानव जीवन का एक 8 आवश्यक और अनिवार्य परक तत्व है। इससे मनुष्य शुद्ध, ज्ञान सम्पन्न, और समुन्नत होता है। इससे मानव सात्विक और मैत्रिक निर्देशों का ज्ञान प्राप्त कर सन्मार्ग पर चलता है। प्राचीन भारत में शिक्षा का विशेष उद्देश्य और आदर्श था जिन्हें हम संक्षेप में निम्नलिखित शीर्षकों पर देख सकते हैं-
(1) धार्मिक प्रवृत्तियों का उत्थान प्राचीन भारतीय जीवन धर्म अनुप्राणित था। मानव के सारे कार्य व्यापार कहीं न कहीं धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति करते थे। धर्मभा भारतीय जीवन का अभिन्न अंग था शिक्षा भी धर्म से पृथक नहीं थी। शिक्षा का मूल उद्देश्य ही विद्यार्थियों के जीवन में धर्म, भक्ति, पवित्रता का आरोपण करना था। ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थियों की समस्त गतिविधियों धार्मिक वृत्तियों के उत्थान में सहायक दी जाती थी। आचार्य कुल में अग्निपरिचर्या, सन्दयोपासना आदि धार्मिक व्रत या कर्म ही थे। गुरुकुल में रहने वाला निष्ठापूर्वक धार्मिक निर्देशों का पालन करता था। शिक्षार्थी के विभिन्न नियम उसके धर्ममूलक प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होते थे। इन्हीं के आधार पर वह लौकिक और पारलौकिक जीवन को समझ पाने में समर्थ हो पाता था छान्दोग्य उपनिषद में धर्म के तीन स्कन्द या आधार बताए गये हैं। प्रथम-यज्ञ अध्ययन और दान, द्वितीय करूण सहिष्णुता और तृतीय गुरूकुल में रहकर शरीर को क्षीण करना। इन धर्म स्कन्धों का अनुकरण विद्यार्थी का उद्देश्य होता था। अशिक्षित इन आधारों को कहां जान पाते थे।
(2) चारित्रिक उत्थान शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य चरित्र का उत्थान था। शिक्षा से व्यक्ति नैतिक क्रियाओं का ज्ञान पाता था और श्रेष्ठ मार्ग के अनुसरण का प्रयास करता था। प्राचीन भारत में चरित्र और आचरण का बहुत ही महत्व था। मनु का कथन है कि 'आचरण और चरित्र से हीन वेद ज्ञाता विद्वान माननीय नहीं है किन्तु गायत्री का ज्ञाता पंडित अपने सदूचरित्र और उच्च आचरण के कारण माननीय हो जाता है। सच्चरित्रता मानव का आभूषण थी। सच्चरित्र नैतिक मूल्यों से संचालित होते हैं। शिक्षा अवधि में हो व्यक्ति आचरण और चरित्र को उन्नत करने का प्रयास किया जात था। नैतिक मूल्यों के पालन का ज्ञान और अभ्यास किया जाता था। सहिष्णुता और सौहार्द, सत्यनिष्ठा और नैतिकता तथा आदर्श और सदाचरण मान के चारित्रिक उतान के प्रधान कारण भूत तत्व थे। अतः धर्म और चरित्र की जिसमें अधिकतता होती थी वहीं पंडित कहा जाता था। शिक्षा के माध्यम से मानव के तामसिक और पाशविक प्रवृत्तियों का दमन किया जाता या शिक्षा के माध्यम से मानव के तामसिक और पाशविक प्रवृत्तियों का दमन किया जाता था। शिक्षा से 'सद्' का ज्ञान पाकर मानव उसी अनुरूप बनने का प्रयास करता था तब उसके चरित्र का उत्थान होता था विद्यार्थी काल में ही कोई चारित्रिक विकास और भावी जीवन के विस्तार का आधार बनाया जाता था।
(3) व्यक्तित्व का उत्कर्ष शिक्षा और ज्ञान से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का उत्कर्ष निश्चित होता है। विभिन्न प्रकार के निर्देशों, संयमों और नियमों से व्यक्ति का जीवन सुव्यवस्थित होता था जिससे उसक व्यक्तित्व का विकास होता था शिक्षा से ही वह कर्तव्य पालन करने के योग्य बनता है। शिक्षा से ही मनुष्य में व्यक्तित्व को उत्कर्ष प्रदान करने वाले तत्वों- आत्मसंयम, आत्मचिन्तन, आत्मविश्वास, आत्म विश्लेषण, विवेक, न्यायवृत्ति, अध्यात्म आदि का उदय होता है। इन तत्वों के जागरण से ही व्यक्तित्व का विकास समुचित रूप से हो सकता है। विद्यार्थी में आत्मविश्वास का होना व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास का कारण है। इससे वह भविष्य के जीवन को हर स्थिति में नियन्त्रित कर लेने की शक्ति पाता था। आत्मसंयम का अभ्यास वह अपने व्यक्तित्व को और ऊँचा उठाने के लिए करता था। इससे वह अपने वृत्तियों को मर्यादित दिशा प्रदान करता था। व्यक्तित्व के उत्थान के लिए उपरोक्त सभी तत्व आवश्यक है जो शिक्षा से ही मिलते थे।
(4) सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की प्रेरणा शिक्षित होने से व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहता है। विद्यार्थी रहते हुए भी वह अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने की शिक्षा प्राप्त ही नहीं करता था अपितु अनुपालन भी करता था। शिक्षा ग्रहण के समय भी वह निःशुल्क अन्य विद्यार्थियों को पढ़ाता भी है। गुरूकुल में ही शिक्षा ग्रहण के बाद गुरूकुल त्याग के समय होने वाले समापवर्तन संस्कार में ही उपदेश देते हुए आचार्य गृहस्थ धर्म और सामाजिक धर्म की मुख्य शिक्षाएं प्रदान करते हैं जैसे सत्य बोलना, - धर्म का आचरण करना, सन्तति उत्पादन की परम्परा अबाध रखना, दोष रहित कार्य करना, माता अतिथि आदि को देव समझना, लाभ, स्वाध्याय में प्रमाद न करना आदि। शिक्षा और ज्ञान के कारण मनुष्य अपने स्वधर्म का पालन करता था। एक शिक्षित ही सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चला सकता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना भी था।
(5) सांस्कृतिक जीवन का उत्थान : शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति का सांस्कृतिक उत्कर्ष सुनिश्चित होता था। शिक्षा से ही अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर व्यक्ति को उन्मुख किया जा सकता था। वैदिक साहित्य और अन्यान्य विषयों का ज्ञान और प्रसार शिक्षा से ही सम्भव था। यह प्राचीन शिक्षा का ही परिणाम है कि वेद, वेदांग आज तक कंठस्थ करके संरक्षित रखे गये। शिक्षा मानव जीवन को बहुआयामी स्वरूप प्रदान करता है। संसार में व्यक्ति विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं मैं आता है। उन सबका निर्वहन शिक्षा से ही सम्भव था। इस प्रकार सांस्कृतिक उन्नयन के लिए शिक्षा परम आवश्यक थी।