प्राचीन भारत में संस्कारों के महत्व की विवेचना
संस्कारों के महत्व : संस्कार प्राचीन भारतीय जीवन के अभिन्न अंग थे। इनसे पृथक पूर्ण जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। प्राचीन भारतीय समाज का कोई व्यक्ति इन संस्कारों से पृथक नहीं रह सकता था। ये महत्त्व की दृष्टि से भारतीय जीवन में महविस्थान रखते थे। इनके महत्व को संक्षेप महत्व को संक्षेप में निम्नलिखित शीर्षकों के तहत देखा जा सकता है।
1. शैक्षिक महत्व : शिक्षा मानव जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। इसके बिना मानव का जीवन अधूरा रह जाता है। हिन्दू संस्कारों में विद्यारम्भ, वेदारम्भ, समापवर्तन आदि संस्कार थे। इनके माध्यम से वह भिन्न-भिन्न प्रकार के विद्यायों का ज्ञान प्राप्त करता था। शैक्षिक संस्कार उसके भावी जीवन के आधार स्तम्भ थे। विभिन्न विधाओं का ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति अपने योग्य क्षेत्र का चुनाव कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। इन्हीं ज्ञान का योग्यता से वह समाज में अपने और अपने परिवार के लिए जीविकोपार्जन की व्यवस्था करता था। शिक्षा से वह जीविकोपार्जन ही नहीं अपितु अपनी प्रस्थिति का भी निर्माण करता था। इस प्रकार शैक्षिक संस्कारों का महत्व व्यक्ति के जीवन को सही दिशा देने के कारण भी अधिक था।
2. जैविकीय महत्व: प्राचीन भारतीय संस्कारों का जैविकीय महत्व था। ये संस्कार सुनियोजित ढंग से मानव जाति की निरन्तरता को बनाए रखने में सहायक थे। व्यक्ति इन संस्कारों से अपने कुल, जाति, परम्परा आदि को स्थायित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। वह अपने अगली पीढ़ी का सृजन निर्बन्धित और मर्यादाहीन विविध से न कर सामाजिक आदर्शों के अनुरूप करता था।
3. भातिक समृद्धि की कल्पना: इन संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति दीर्घ जीवन सुख समृद्धि, सम्पत्ति, शक्ति, वैभव, संतान आदि पाने के लिए प्रार्थना करता था। वह मानता था कि संस्कारों के उचित सम्पादन से उसे समस्त प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी। इनकी प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्डों को करने की योग्यता संस्कारों से ही प्राप्त होती थी।
4. सामाजिकता का विकास: हिन्दू जीवन में सम्पादित होने वाले संस्कार व्यक्ति के उचित सामाजीकरण की प्रक्रिया को व्यवस्थित करते थे। इन संस्कारों के कारण व्यक्ति का ठीक से समाजीकरण होता था। इन संस्कारों के सम्पादन से मनुष्य में सामाजिक गुणों और आदर्शों का विकास होता था। वह सामाजिक मूल्यों और प्रतिमानों का ज्ञान प्राप्त करता था। उसी के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयास करता था। इससे व्यक्ति समाज मे स्वयं को स्थापित ही नहीं करता था अपितु वह अपने लिए एक स्थान भी बनाता था। सामाजिक परम्पराओं के इस अनुकरण से परम्पराओं और समाज के स्वरूप को दीर्घ जीवन प्राप्त होता था। इन संस्कारों का ही योग था कि प्राचीन पारिवारिक प्रणाली लम्बे समय तक चलती रही। पारिवारिक विघटन के तत्व सामने नहीं आ सके। प्राचीन परम्पराएं भी लम्बे समय तक जीवित रहीं। संस्कारों के ही कारण हिन्दू समाज में हजारों वर्ष पुरानी परम्पराएं आज भी जीवित हैं।
5. व्यक्तित्व का निर्माण: यद्यपि महत्व को दृष्टि से संस्कार सामाजिकता को प्रतिबिम्बित करते हैं लेकिन इनकी मौलिक प्रकृति व्यक्तिवादी थी। संस्कार व्यक्ति विशेष, से ही सम्बन्धित था। इस कारण व्यक्ति के लिए इसका महत्व बहुत अधिक था। व्यक्ति के व्यक्तित्व और चरित्र के विकास के लिए ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। संस्कार के माध्यम से व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को विकसित करता था। वह अपने को एक विशेष बनाने का प्रयास करता था। वह अपने प्रस्थिति का विकास करता था। समाज में स्वयं का स्थान बनाने के लिए प्रयासरत होता था। इसी अनुरूप वह अपने चरित्र का निर्माण करता था। ये संस्कार व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास के कारक होते थे संस्कारों से परिष्कृत हुआ व्यक्ति अपने में एक विशेष गरिमा के होने का अभाव पाता था।
6. नैतिक और आध्यात्मिक महत्व : संस्कार व्यक्ति को उसके नैतिक दायित्वों के प्रति जागरूक बनाते हैं। जिससे वह आत्मप्रेरणा प्राप्त करता था। वह मानवीय मूल्यों और कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करता था। दूसरे शब्दों में कुछ संस्कारों को हम नैतिक नियमों की पाठशाला भी कह सकते हैं। नैतिक नियमों का ज्ञान पाले के बाद व्यक्ति में आध्यात्मिक प्रवृत्तियों जागृत होती थी। उसमें आध्यात्मिकता का भाव आता था। फलस्वरूप उसमें कई प्रवृत्तियां उत्पन्न होती थीं जो समाज, परिवार, धर्म, व्यक्तित्व के लिए आवश्यक होती थी।
7. धार्मिकता का जागरण: प्राचीन भारतीय समाज पूर्णतः धार्मिक था। धर्म इसका प्राण तत्व था। ये संस्कार व्यक्ति में धार्मिकता और आध्यात्मिकता का जागरण करते थे। शैशवावस्था से ही व्यक्ति में धार्मिकता के जागरण का प्रयास किया जाता था। संस्कारों का गठन कुछ इस प्रकार से किया गया है कि व्यक्ति का संसार में आने के साथ ही इन संस्कारों से सम्बद्धता हो जाती थी। संस्कार मूलत: धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। संस्कारों के कारण व्यक्ति भी धार्मिकता के आवरण से सदैव संपृक्त रहता था। ऐसे अवसर नगण्य थे जिसमें कि वह अधार्मिक बन सके। संस्कारों का उचित सम्पादन उसे इस बात का मौका ही नहीं देते थे। यही कारण है कि भारतीय जीवन पूर्णतः धार्मिक हो जाता था।