पारितन्त्र ( पारिस्थितिक-तन्त्र)
वर्तमान में पारिस्थितिक विज्ञानी अध्ययन हेतु पारिस्थितिक तन्त्र उपागम का प्रयोग किया जाता है जो कि पारिस्थितिक विज्ञान की नवीनतम विधि है। पारिस्थितिक तन्त्र उपागम के अनुसार जीवित प्राणी और उनका अजैविक पर्यावरण अपृथकनीय एवं परस्पर निर्भर है तथा वे परस्पर एक-दूसरे से अन्तः क्रिया करते है। ए. जी. टेन्सले (A. G. Tansley) ने पारिस्थितिक तन्त्र को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जो कि पर्यावरण के सभी जैविक एवं अजैविक कारकों के एकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र में केवल जीवों की जटिलता को ही नहीं वरन् पर्यावरण का निर्माण करने वाले सभी भौतिक कारकों को भी सम्मिलित किया जाता है। यह जीवों एवं पर्यावरण की एकता पर आधारित है।
पारिस्थितिक तन्त्र में सजीव प्राणी आपस में तथा अपने भौतिक पर्यावरण से ऊर्जा, द्रव्य एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। वह आदान-प्रदान आवश्यक है क्योंकि पृथ्वी पर सजीव प्राणी भौतिक तथा जैविक पृथक्करण (Isolation) में जीवित नहीं रह सकते। प्राणियों को जीवित रहने के लिए आपस में तथा अपने पर्यावरण के भौतिक एवं रासायनिक पदार्थों से अन्तःक्रिया करनी पड़ती है, इसे ही पारिस्थितिक तन्त्र कहते हैं। यह धारणा काफी लम्बे समय से चली आ रही है कि जीवों के जन्म, वृद्धि, प्रजनन एवं विस्तार के लिए उन्हें पर्यावरण के अनेक घटकों पर निर्भर रहना पड़ता है। यहां अनेक प्रकार के पौधे, उनके साथ रहने वाले अनेक छोटे-बड़े जानवर, हवा, जीवाणु एवं पर्यावरण को मिलाकर एक अभिन्न तन्त्र की रचना होती है। तन्त्र के किसी भी भाग में परिवर्तन उस समस्त तन्त्र को प्रभावित करता है।
पारिस्थितिक तन्त्र मूल रूप से प्रकृति का क्रियात्मक स्वरूप है। किसी भी स्थान पर पौधों, जानवरों एवं पर्यावरण में अगर क्रियात्मक सम्पूर्णता मिलती है तो उसे हम पारिस्थितिक तन्त्र (Eco-system) कहते हैं। यह अनन्त छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। यहां तक कि एक वृक्ष भी पारिस्थितिक तन्त्र बना सकता है। वृक्ष सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा को ग्रहण करके मिट्टी तथा हवा से लिए गये अकार्बनिक तत्वों को मिलाकर ऊर्जा से परिपूर्ण रासायनिक पदार्थ बनाते हैं जिससे प्राथमिक उत्पादन होता है। हमसे वृक्ष पर रहने वाले अनेक पक्षी इसकी छाया में बसेरा पाते हैं और इसके फलों को खाकर अपने शरीर की वृद्धि करते हैं। कुछ अन्य जन्तु इन पक्षियों को भी खाते हैं। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र का एक क्रियात्मक गुण ऊर्जा को ग्रहण करके प्राथमिक उत्पादन करना है, इस ऊर्जा के कुछ भाग पौधों के शरीर वृद्धि अथवा श्वसन में इस्तेमाल करना तथा कुछ भाग को शाकाहारी और मांसाहारी जानवरों तक पहुंचाना है। इस ऊर्जा के साथ रासायनिक अकार्बनिक तत्व भी पर्यावरण से पौधों में और उनके द्वारा शाकाहारी एवं मांसाहारी जीवों में कुछ मात्रा में पहुंचते हैं। कुछ भाग श्वसन द्वारा पर्यावरण में लौट जाता है और कुछ भाग मृत्योपरान्त मिट्टी में मिल जाता है जो पुनः मिट्टी और वायुमण्डल से जीवधारियों में वापस आ जाता है। इस प्रकार पदार्थ जीव-मण्डल में पर्यावरण और जीवधारियों के बीच चक्रीकरण करते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र बहुधा स्वचालित एवं सन्तुलित होते हैं।
एक तालाब के पारिस्थितिक तन्त्र को चित्र 2 द्वारा आगे स्पष्ट किया गया है। चार मौलिक इकाइयां हैं-
A. अजीवीय पदार्थ
B. उत्पादक- मूलीय एवं लवमान पौधे: B उत्पादक पादक-लचक
C. प्राथमिक उपभोक्ता (शाकाहारी प्राणी) तयासी:
- C-प्राथमिक उपभोक्ता (शाकाहारी प्राणी)- प्राणी प्लवक -द्वितीय उपभोक्ता (मांसाहारी प्राणी):
- C--तृतीयक उपभोक्ता (द्वितीयक मांसाहारी प्राणी):
D अपघटक जीवाणु तथा कवक।
हमें प्रकृति में कार्बनिक चक्र, नाइट्रोजन- चक्र, फॉस्फोरस-चक्र, जल चक्र एवं आहार चक्र देखने को मिलते हैं। इन चक्रों के माध्यम से प्रकृति में इन वस्तुओं की कमी नहीं होने पाती और पर्यावरण में इनका सन्तुलन बना रहता है। किन्तु मानव ने विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म देकर इन चक्रों को असन्तुषित कर दिया है।