वैयक्तिक विघटन के लक्षण। SYMPTOMS OF PERSONAL DISORGANIZATION
परिभाषाओं से वैयक्तिक विघटन के कुछ लक्षणों का पता चलता है। व्यक्ति भविष्य में क्या इरेगा, उसका व्यक्तित्व संगठित प्रकार का होगा या विघटित प्रकार का यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसके जीवन संगठन की विशेषताएं क्या है, उसने किन-किन बातों, मूल्यों, अभिवृत्तियों, आदर्श नियमों एवं व्यवहार प्रतिमानों को अपने में आत्मसात किया है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन संगठन में निम्नलिखित बातें या विशेषताएं पायी जाती हैं, तो उसे विघटित व्यक्तित्व या वैयक्तिक विघटन के उदाहरण के रूप में माना जायेगा।
(1) सामाजिक मूल्यों से मेल नहीं खाने वाली मनोवृत्तियां (Attitudes Inconsistent with Social Values)--व्यक्ति के व्यवहार को निश्चित करने में सामाजिक मूल्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वैयक्तिक विघटन उस दशा में उत्पन्न होता है जब व्यक्ति ऐसी मनोवृत्तियों को अपने जीवन संगठन का अंग बना लेता है जो सामाजिक मूल्यों के विपरीत हो। ऐसी दशा में व्यक्ति सामाजिक मूल्यों की परवाह किये बिना मनमाने ढंग से व्यवहार करने लगता है। वह इस प्रकार से कार्य करता है कि उसे सबसे अधिक लाभ प्राप्त हो, चाहे दूसरों को इससे कितना ही नुकसान क्यों न हो। जो व्यक्ति सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा करता है, उनके विपरीत आचरण करता है, वह अन्य व्यक्तियों के साथ सफलतापूर्वक सामंजस्य या अनुकूलन नहीं कर पाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि सामाजिक मूल्यों से भिन्न प्रकार की अभिवृत्तियों का विकास वैयक्तिक विघटन का लक्षण है।
(2) सामाजिक आदर्श-नियमों के विपरीत आचरण (Deviation from Social Norms)—–सामाजिक आदर्श नियम व्यक्ति के व्यवहार के मार्ग-दर्शक के रूप में काम करते हैं। ये आदर्श नियम सारे समाज में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। परन्तु कभी-कभी व्यक्ति अपने स्वयं के स्वार्थ के आगे इन आदर्श नियमों की चिन्ता नहीं करते हुए इनके विपरीत आचरण करने लगता है। यह विचलित व्यवहार के नाम से भी जाना जाता है। व्यक्ति अपने स्वाबों के वशीभूत होकर ऐसा व्यवहार करता है जो सामाजिक आदर्श नियमों के विपरीत हो। जब व्यक्ति के व्यवहार में आदर्श नियमों से विचलन पाया जाय तो समझना चाहिए कि वैयक्तिक विघटन हो रहा है।
(3) प्रस्थिति तथा भूमिका का असामंजस्य (Maladjustment of Status and Role)—प्रत्येक प्रस्थिति के साथ एक निश्चित भूमिका जुड़ी होती है। जब तक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका निभाता रहता है, तब तक तो उसका व्यक्तित्व संगठित रहता है, परन्तु जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसका व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति भावनात्मक असुरक्षा महसूस करता है। उसे संवेगात्मक सन्तुष्टि नहीं मिलती। वह स्वयं यह समझने लगता है कि उसमें प्रस्थिति के अनुरूप भूमिका निभाने की योग्यता या क्षमता नहीं है। आज के गतिशील समाजों में प्रस्थिति और भूमिका के क्षेत्र में इतनी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं कि व्यक्ति आसानी से यह निश्चित नहीं कर पाता है कि उससे क्या-क्या अपेक्षाएं या आशाएं की जा रही हैं। भूमिका सम्बन्धी अस्पष्टता भी वैयक्तिक विघटन को बढ़ाने में योग देती है। नगरीय क्षेत्र में शिक्षित भारतीय महिला के सम्मुख भूमिका सम्बन्धी अस्पष्टता पायी जाती है।
(4) सामाजिक संरचना का अवांछनीय दबाव (Undesirable Pressure of Social Structure)- सामाजिक संरचना न केवल व्यक्ति का समाजीकरण करने में वल्कि उसकी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में भी महत्वपूर्ण योग देती है। जहां सामाजिक संरचना कुछ व्यक्तियों को तो उच्च प्रस्थितियां प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है, परन्तु शेष को ऐसा करने से रोक देती है तो ऐसी स्थिति में वैयक्तिक विघटन की सम्भावना अधिक रहती है। जब सामाजिक संरचना कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति पर तो जोर देती है, परन्तु करने के साधन अधिकांश लोगों को उपलब्ध नहीं कराती है, वहां मानसिक तनाव, चिन्ता और विकार की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक विघटन बढ़ता है। उन्हें प्राप्त
(5) अलगाव की भावना (Feeling of Alienation ) – अलगाव एवं वैयक्तिक विघटन पर आगे के पृष्ठों में सविस्तार लिखा गया है। यहां इतना बताना ही काफी है कि जब व्यक्ति अपने को सब प्रकार के समूहों अथवा सामाजिक सम्बन्धों से कटा हुआ महसूस करता है, सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने को दूसरों से विमुख या अलग हुआ पाता है, तो इस सामाजिक-मानसिक दशा को अलगाव कहा जाता है। वैयक्तिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।