सामाजिक आन्दोलनों के संरचनात्मक तनाव के सिद्धान्त
सामाजिक आन्दोलनों की उत्पत्ति के कुछ ऐसे सैद्धान्तिक आधारों की सहायता से स्पष्ट किया गया है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से मार्क्सवादी मान्यताओं तथा संरचनात्मक प्रकार्यात्मक पक्ष के समन्वित रूप से स्पष्ट करते हैं।
इस सन्दर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक आन्दोलन अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक दशाओं का परिणाम है। नील स्मेलसर ने सामाजिक आन्दोलनों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए संरचनात्मक तनाव के सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। इन नावों के स्पष्ट करते हुए बताया कि यह तनाव किसी सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों के पारस्परिक सम्बंधों के बीच उत्पन्न होने वाला असन्तुलन है, जिससे सम्पूर्ण व्यवस्था में विघटनकारी तत्व पैदा होने लगते हैं तथा लोगों के जीवन में अनेक प्रकार के अभाव उत्पन्न हो जाते हैं।
स्मैलसर का यह विचार है कि एक विशेष समुदाय की संरचना मैं पैदा होने वाले तनाव ऐसी दशायें उत्पन्न करते हैं, जिससे सामूहिक व्यवहार को प्रोत्साहन मिलने लगता है। यह संरचनात्मक तनाव सामाजिक आदर्श नियमों, सामाजिक मूल्यों तथा परिवर्तन के लिये किये जाने वाले प्रयत्नों इत्यादि विभिन्न स्तरों से सम्बंधित हो सकते हैं। जब कभी भी किसी समाज अथवा समुदाय में संरचनात्मक तनाव से सम्बंधित दशायें उत्पन्न होती है, तब अपनी विभिन्न परिस्थितियों का मूल्यांक करने के लिये वर्तमान व्यवस्था से सम्बंधित लोगों के विचारों और विश्वासों में परिवर्तन होने लगता है। अनेक व्यक्ति व्यवहा के उन नये तरीकों पर विचार करने लगते हैं, जिनसे जनसामान्य के अव धारणाओं और विश्वासों के अनुरूप परिवर्तन लाया जा सके। इसी आध र पर स्मैलसर ने यह निष्कर्ष दिया कि किसी समुदाय या समूह में पैदा होने वाले संरचनात्मक तनाव जब सामान्य विशेषताओं के बदलने लगते हैं, तब आन्दोलन के लिये उपयुक्त वातावरण बन जाता है।
स्मेलसर ने इस तथ्य पर जोर दिया कि जिस दिशा को हम तनावों का परिणाम है, जिससे समाज में आन्दोलन की उत्पत्ति होती है। वे विभिन्न प्रकार के संघर्ष एक विशेष सामाजिक संरचना में किस प्रकार असंतुलनकारी तत्व उत्पन्न करते हैं। प्रत्येक सामाजिक आन्दोलनों का सम्बंध एक विशेष संरचना के दुष्प्रकार्यात्मक रूप से होता है। जिसे तनावों के आधार पर ही समझा जा सकता है।
संरचनात्मक प्रकार्यात्मक उपागम भारत में होने वाले अधिकांश पिछड़े वर्गों और कृषक आन्दोलनों के व्याख्या करने में काफी उपयुक्त प्रतीत होते हैं। इन वर्गों में तुलनात्मक अभाव बोध की दशा बहुत पहले से ही विद्यमान थी, लेकिन बदलते हुए सामाजिक मूल्यों और आदर्श नियमों के कारण आज जब सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध दुष्प्रकार्यात्मक होने लगा, तब संरचनात्मक तनावों के प्रभाव से इन वगो ने अपने असन्तोष के सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा अभिव्यक्त करना आरम्भ कर दिया है। इसी के सामाजिक आन्दोलनों के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक उपागम भी करते हैं।