हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार
"हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है।" :- हिन्दूओं में विवाह एक महान संस्कार माना जाता है। यह गृहस्थ आश्रम का आरम्भ ही नहीं अपितु आधार भी है।
विश्व में भिन्न-भिन्न प्रकृति के विवाह संस्कार प्रचलित हैं। स्थूल रूप से इसे हम दो भाग में बांट सकते हैं। प्रथम संविदा या समझौता विवाह और दूसरा सांस्कारिक विवाह। संविदा विवाह में समझौता के गुण निहित होते हैं। वर और वधू शारीरिक सुख के लिए विवाह करने का समझौता करते हैं। संविदा विवाह में कुछ विशिष्ट तत्व होते हैं जैसे-
1. प्रस्ताव और स्वीकृति
2. दोनों पक्षों को प्रतिफल
3. साक्षी या गवाह
4. विवाह विच्छेद के समान अवसर
5. विवाह का उद्देश्य शरीर सुख
6. धार्मिकता का अभाव आदि ।
इस कोटि के विवाहों में मुस्लिम विवाह महत्वपूर्ण है। इसके विपरीत सांस्कारिक विवाह में उपरोक्त तत्व नहीं मिलते। इस तरह के विवाह में हिन्दू विवाह ही उल्लेखनीय है। इसमें अनेक ऐसे तत्व हैं जो इसे संविदात्मक विवाह से अलग करते हैं। इन्हें संक्षेप में निम्नवत देख सकते हैं-
(1) विवाह के उद्देश्य : संविदात्मक विवाहों के विपरीत हिन्दू विवाह के तीन उद्देश्य बताए गये हैं-
1. धर्म
2. पुत्र और
3. रति
इनमें प्रथम दो का स्वरूप नितान्त धार्मिक है। विवाह के पूर्व किया जाने वाला धार्मिक कृत्य, यज्ञ, कर्मकाण्ड आदि अधूरे माने गये हैं। पत्नी के साथ ही धार्मिक कृत्य सम्पादित किए जा सकते हैं। अतः विवारह आवश्यक बताया गया। विवाह का दूसरा उद्देश्य- पुरूष सन्तान की प्राप्ति था। शास्त्रों की मान्यता और स्थापना है कि पुत्र से ही व्यक्ति पितृण और 'पुं' नामक नरक से मुक्ति पा सकता है। इस कारण विवाह की अनिवार्यता पर बल दिया गया। रति या शारीरिक सुख विवाह का अन्तिम उद्देश्य है जो संविदात्मक विवाहों का एक मात्र उद्देश्य है।.
(2) जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध: हिन्दू-विवाह में वर-कन्या का संसार में बनाया जाने वाला सम्बन्ध नहीं माना जाता अपितु वर और कन्या का यह सम्बन्ध दैव निर्मित है। यह जन्म-जन्मान्तरों पूर्व निर्धारित हो चुका होता है। वर और कन्या एक दूसरे के जन्म के लिए नहीं अपितु सात जन्मों के साथी हैं। ये सम्बन्ध ब्रह्मा स्वयं निर्धारित कर देते हैं।
(३) विवाह विच्छेद का अभाव: हिन्दूओं में विवाह जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना जाता है। वैवाहिक बन्धन मानवों द्वारा स्थापित नहीं माना जाता है। अतः इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। वैवाहिक सम्बन्ध बन जाने के बाद सम्बन्धों का निर्वाह करना ही पड़ता है। शास्त्रों में वैवाहिक सम्बन्ध से मुक्ति का विधान नहीं दिया गया है। पति चाहे जैसा भी हो उससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता।
(4) धार्मिक कर्मकाण्ड : वैवाहिक कर्म को सम्पादित करने के लिए शास्त्रों में अनेक धार्मिक कर्मकाण्डों के सम्पादन का निर्देश दिया गया है। ये कर्मकाण्ड अनिवार्य परक है। इनके बिना विवाह पूर्ण नहीं माना जा सकता। यद्यपि विवाह संस्कार में सम्पादित करने वाले कर्मकाण्डों की संख्या बहुत अधिक है लेकिन इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है-
(क) विवाह पूर्ण कर्मकाण्ड
(ख) विवाह काल के कर्मकाण्ड
(ग) विवाहोपरान्त के कर्मकाण्ड ।
विवाह के पूर्व गुण मेलापन, कन्यापूजन, वर-रक्षा आदि कर्म किये जाते हैं। विवाह के समय के कर्मकाण्ड अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इन्हें संक्षेप में निम्नवत देख सकते हैं-
1. कन्यादान
2. पाणिग्रहण
3. लाजा होम
4. अग्नि परिणयन,
5. अश्मारोहण
6. सप्तपदी
अनेकानेक देवों का आवाहन कर उनको साक्षी मानकर ये सारे धार्मिक कर्मकाण्ड किए जाते हैं। सर्वप्रथम कन्या का पिता वर को अपनी कन्या का संकल्पपूर्वक दान करता है। इसके बाद वर कन्या का हाथ ग्रहण करता है जिसे पाणिग्रहण कहा जाता है। तब धान के खिल्य का अग्नि में होम किया जात है जिसे लाजा होम कहा जाता है। वर-वधू दोनों अग्नि की परिक्रमा अर्थात अग्नि परिणयन करते हैं। इसके बाद वर अपने हाथ से कन्या के पैर का अंगूठा पत्थर पर रखता है। इस अश्मारोहण कर्मकाण्ड का उद्देश्य सम्बन्धों में दृढ़ता और अटूट होने की कामना है।
इसके बाद सप्तपदी है जिसमें दोनों सात पग साथ-साथ चलते हैं। ये सभी प्रमुख कर्मकाण्ड अनिवार्य परक थे। विवाह के पश्चात ध्रुव, अरुन्धती आदि तारों के दर्शन करने होते थे जो सम्बन्धों के अटल होने की कामना के लिए होते थे। वधु अपने श्वसुर के गृह आती है और वहां प्रति सरबन्धन अर्थात कंगन खोला जाता है। जिसे चतुर्थी कर्म भी कहा जाता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दू विवाह सामान्य कोटि का विवार नहीं था। यह संविदात्मक विवाहों से सर्वथा पृथक और संस्कार कोटि का विवाह है। इमसें धार्मिकता प्रत्येक क्रियाओं से जुड़ी हुई है। विवाह के बाद भी इसमें मुक्ति का कोई अवसर वर-वधू को उपलब्ध नहीं है। यह जन्म-जन्मान्तरों का बंधन अटल और अटूट है। इस प्रकार हिन्दू विवाह एक संस्कार सिद्ध होता है।